पुण्य-तिथि : आतंकवाद में दृढ़ चट्टान विश्वनाथ
अस्सी के दशक में जब पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था, उन दिनों बड़ी संख्या में लोग पंजाब छोड़कर अन्य प्रान्तों में जा बसे थे। ऐसे में पंजाब प्रान्त प्रचारक श्री विश्वनाथ ने सबको हिम्मत से वहीं डटे रहने का आग्रह किया। वे स्वयं साहसपूर्वक गाँव-गाँव घूमे और स्वयंसेवकों तथा सामान्य नागरिकों का उत्साह बढ़ाया।
विश्वनाथ जी का जन्म 1925 में अमृतसर के पास सिख पन्थ के तीसरे गुरु श्री अमरदास जी द्वारा स्थापित श्री गोइन्दवाल साहिब में हुआ था। विश्वनाथ जी ने अमृतसर के खालसा कालिज में शिक्षा पाई। छात्र जीवन में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आ गये थे।
उन दिनों देश विभाजन की चर्चा सर्वत्र होती रहती थी। पंजाब के सिर पर संकट प्रत्यक्ष मंडरा रहा था। लोगों की आशा का केन्द्र केवल संघ शाखा पर आने वाले नवयुवक ही थे। विश्वनाथ जी अपनी पूरी शक्ति से संघ कार्य के विस्तार में लग गये।
ऐसे में घर वालों का नाराज होना स्वाभाविक ही था। वे प्रायः रात को देर से लौटते थे। एक बार बहुत देर होने पर घर वालों ने दरवाजा नहीं खोला। बस, उसी दिन विश्वनाथ जी ने केवल और केवल संघ कार्य करने का निर्णय ले लिया और 1945 में बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर प्रचारक बन गये। उन्होंने 1944, 45 और फिर 46 में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण लिया।
सर्वप्रथम उन्हें मिण्टगुमरी जिले की बाँसपत्तन तहसील (वर्तमान पाकिस्तान) में काम करने भेजा गया। वहाँ का माहौल तो और भी खराब था। मुस्लिम गुंडे खुलेआम पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाकर हिन्दुओं को लूट रहे थे। ऐसे में विश्वनाथ जी ने हिन्दू युवकों की टोली बनाकर उन्हें मुँहतोड़ जवाब दिया। 1947 में देश का विभाजन होने पर उधर से हिन्दुओं को सुरक्षित निकालने तथा उन्हें पुनस्र्थापित करने के काम में विश्वनाथ जी जुट गये।
1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा। पूरे देश में इसके विरुद्ध सत्याग्रह हुआ; पर पंजाब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति समर्थन इतना अधिक था कि शासन सत्याग्रहियों को गिरफ्तार ही नहीं करता था। अतः विश्वनाथ जी ने वहाँ के स्वयंसेवकों को दिल्ली भेजा और स्वयं भी दिल्ली में गिरफ्तारी दी। प्रतिबन्ध उठने पर वे लुधियाना, फिरोजपुर और हिसार में जिला प्रचारक तथा फिर अमृतसर में विभाग प्रचारक रहे। 1971 में उन्हें दिल्ली तथा 1978 में पंजाब का प्रान्त प्रचारक बनाया गया।
पंजाब में उन्होंने स्वयंसेवकों तथा अन्य हिन्दू नागरिकों को विदेश प्रेरित आतंक के विरुद्ध बलिदान के लिए तैयार रहने को प्रेरित किया। उन दिनों शाखाओं पर भी हमले हुए; पर विश्वनाथ जी ने धैर्य रखा और कार्यकर्ताओं को उत्तेजित नहीं होने दिया। इस कारण पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हो सका। इससे आतंकियों को संचालित करने वाले उनके विदेशी आका बहुत निराश हुए।
पंजाब में संघ को हिन्दी समर्थक माना जाता है; पर विश्वनाथ जी वार्तालाप, बैठक, बौद्धिक आदि में पंजाबी भाषा का ही प्रयोग करते थे। इससे बड़ी संख्या में सिक्ख भी संघ से जुड़े। 1990 में उन्हें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर (उत्तर क्षेत्र) का काम दिया गया।
वर्ष 2001 से 2006 तक ‘धर्म जागरण विभाग’ के प्रमुख के नाते उन्होंने देश भर में प्रवास किया। अनेक रोगों के कारण जब उन्हें प्रवास में कठिनाई होने लगी, तो उन्होंने सब जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अमृतसर कार्यालय पर रहना पसन्द किया। जीवन भर दैनिक शाखा के प्रति आग्रही रहे श्री विश्वनाथ जी का 24 मई, 2007 की प्रातः अमृतसर कार्यालय पर ही देहान्त हुआ।