Saturday, November 2, 2024
कला एवं साहित्य

अविश्रांत पथिक ओमप्रकश गर्ग: जिन्हें फरुखाबाद और बरेली जेल में रखा गया

संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री ओमप्रकाश गर्ग का जन्म ग्राम मोरटा (गाजियाबाद, उ.प्र.) में 21 जून, 1926 को श्री बेनीप्रसाद एवं श्रीमती रामकली देवी के घर में हुआ था। समाजसेवी श्री बेनीप्रसाद जी बच्चों को निःशुल्क पढ़ाते थे। फिर उन्हें सरकारी विद्यालय में काम मिल गया। वे जातिभेद के विरुद्ध थे। ओमप्रकाश जी पांच भाइयों में सबसे छोटे हैं। सबसे बड़े भाई लक्ष्मी जी गांव में पहले स्नातक थे। दूसरे कैलाश जी 1942 के आंदोलन में सक्रिय रहे।

प्राथमिक शिक्षा गांव में लेकर उन्होंने शंभूदयाल विद्यालय, गाजियाबाद से हाई स्कूल किया। 1942 में वहीं वे कम्पनी बाग की शाखा में जाने लगे। फिर वे बड़े भाई के पास कानपुर चले गये। वहां से इंटर और बी.एस-सी. कर तिर्वा (कन्नौज, उ.प्र.) के दुर्गा नारायण उच्चतर महाविद्यालय में पढ़ाने लगे। अध्यापन के बाद का पूरा समय वे संघ कार्य में ही लगाते थे।

नवम्बर, 1947 में कानपुर के प्रचारक श्री अनंत रामचंद्र गोखले के आग्रह पर वे प्रचारक बने; पर विद्यालय वाले उन्हें सत्र के बीच में छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने एक अन्य कार्यकर्ता को काम पर रखवा दिया। 1946 (काशी), 47 (भरतपुर) और 1954 में उन्होंने तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग किये।

प्रचारक जीवन में वे उ.प्र. में फरुखाबाद, कन्नौज, लखीमपुर, लखनऊ, आगरा और मथुरा में नगर, तहसील व जिला प्रचारक रहे। बिहार में वे पटना और भागलपुर में रहे। लखनऊ और भागलपुर में वे जनसंघ के संगठन मंत्री थे। आपातकाल में उन्हें फिर पटना भेजा गया। वहां वे विभाग, संभाग, सहप्रांत और फिर उत्तर बिहार प्रांत प्रचारक रहे। उनके प्रयास से श्री जयप्रकाश नारायण के ‘अमृत महोत्सव’ में सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस शामिल हुए। इससे संघ के प्रति उनके भ्रम दूर हुए और इसका भविष्य में बहुत लाभ मिला।

1991 में उन्हें नेपाल अधिराज्य में ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ की जिम्मेदारी दी गयी। वहां चीन की शह पर वामपंथियों तथा अमरीकी सहयोग से ईसाई मिशन का काम बढ़ रहा था। उन्होंने शाखाएं बढ़ाकर इन पर नियन्त्रण का प्रभावी प्रयास किया। शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती के प्रवास के समय उन्होंने राजा बीरेन्द्र से सम्पर्क कर उन्हें भी इन गतिविधियों की जानकारी दी।

उ.प्र. और बिहार से लगी नेपाली सीमा पर मुस्लिम हलचल बढ़ती देख वर्ष 2000 में ‘सीमा जागरण मंच’ बनाकर उन्हें इसका काम दिया गया। उन्होंने गांवों में मंदिर तथा महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित करवाईं। ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ तथा ‘ग्राम सुरक्षा समिति’ का गठन किया। लखीमपुर जिले में महाराणा प्रताप की भव्य प्रतिमा का अनावरण सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने किया।

ओमप्रकाश जी ने 1948 तथा 1975 के प्रतिबंध में जेल यात्रा की। 1948 में बस से कायमगंज जाते हुए उन्हें पकड़कर पहले फरुखाबाद और फिर बरेली जेल में रखा गया, जहां से वे जून, 1949 में छूटे। आपातकाल में वे अपै्रल, 1976 में दानापुर में पकड़े गये। ‘मीसा’ लगाकर उन्हें फुलवारी शरीफ कैम्प जेल में रखा गया। वहां से भी वे प्रतिबंध समाप्ति के बाद ही बाहर आये। इस कारण बिहार के सभी बड़े राजनेताओं से उनका अच्छा परिचय है।

ओमप्रकाश जी पर विवेकांनद और अरविंद के साहित्य का विशेष प्रभाव है। वर्ष 2007 से वे ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में सक्रिय हैं। पहले वे केन्द्रीय मंत्री थे, अब केन्द्रीय प्रबन्ध समिति के सदस्य रहते हुए मुख्यतः नेपाल के काम की देखरेख करते हैं। सादगी और सरलता उनके जीवन की विशेषता है। वे लम्बी यात्राएं भी प्रायः बिना आरक्षण कराये रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में बैठकर कर लेते हैं। पर्वतीय क्षेत्र में बस, ट्रक या जीप की यात्रा में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। घोर सर्दी में भी वे धोती ही पहनते हैं। सामान भी उन पर बहुत कम है, जिसे झोले में लेकर वे प्रायः प्रवास पर ही रहते हैं। इस सक्रियता से उनका शरीर और मन भी स्वस्थ रहता है।

(संदर्भ : 2.2.2016 को हुई वार्ता)