विषभाषा को उखाड़ फेंकने के लिए देश की मिट्टी किसी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की प्रतीक्षा कर रही..!

समाज के सभी वर्गों में सद्भावना और सौहार्द की बात कभी हम लोगो ने अपने परिवार के सदस्यों या स्कूलों में विद्यार्थियों के साथ सांप्रदायिकता के विषय पर कोई सार्थक संवाद स्थापित किया..?

इस तरह की विषभाषा वाली बोली बोलने की हिम्मत कहां से आ जाती है जिससे धर्म समाज देश सब शर्मसार हो उठते हों?आज ऐसा लगता है जैसे कहीं से अंकुरित एक विषभाषा इस देश की पवित्र मिट्टी का उपहास करती हुई बढ़ती चली जा रही है हर कहीं फैलती जा रही है! कहीं कहीं तो इसने हमारी विविध रंगों खुशबुओं वाली स्नेहसिक्त सुकोमल वनस्पतियों को अपनी बेढंगी सख्त शाखाओं प्रशाखाओं के बोझ तले दबाकर बेदम कर डाला है!यह विषभाषा हमारे न्यू इंडिया के समाज में बढ़ रहे वैमनस्य की है जो आज बेकाबू होने लगी है!घृणा और हिंसा के स्याह बदरंग फूलों फलों से इसकी टहनियां लद रही हैं जिससे हमारे समाज का चेहरा कुरूप और कलुषित होता जा रहा है! सवाल यह है कि देखते ही देखते इस विषभाषा ने इतना प्रचंड रूप कैसे धारण कर लिया? इस सवाल का सरल सा उत्तर भी हमारे पास है और हमारे जेहन में कुछ खास लोगों के चेहरे भी घूमने लगते हैं! मगर हमें अपनी यानी आम लोगों की बात करनी होगी जरा खुद से पूछें कि देश की संरचना में अपनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाने वाले हम आम लोग क्या समय रहते इस जहरीली भाषा को बढ़ने पनपने और फैलने से रोक नहीं सकते थे? समाज के सभी वर्गों में सद्भावना और सौहार्द की बात कभी अपने परिवार के सदस्यों के साथ की हो या स्कूलों में विद्यार्थियों के साथ समय समय पर सांप्रदायिकता के विषय पर कोई सार्थक संवाद स्थापित किया हो ऐसा कुछ याद आता है हमें?शायद ऐसा नहीं हुआ! हमारे बीच ही रहे होंगे कुछ लोग जो किसी नासमझी में या फिर किसी स्वार्थवश इस विषभाषा को खाद पानी देकर पोषित करने में जुट गए! आज स्थिति यह है कि हर दिन दंगा फसाद के रोंगटे खड़े कर देने वाले समाचार पढ़ सुन कर हम निरीह से इधर उधर झांकने लगते हैं! अब एक सभ्य विनम्र और उदार समाज की चौहद्दी के बाहर शायद बहुत दूर निकल आए हैं हम! निश्चय ही कहीं बड़ी चूक हुई है! लेकिन विषभाषा को समूल उखाड़ फेंकने के लिए इस देश की मिट्टी अभी भी किसी इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की प्रतीक्षा कर रही है।