Sunday, November 3, 2024
कला एवं साहित्यदेश

पुण्य-तिथि पर जाने गजेन्द्र दत्त नैथानी को…………..

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जीवनव्रती प्रचारकों की सुदीर्घ परम्परा है। इसी के एक दैदीप्यमान नक्षत्र थे श्री गजेन्द्र दत्त नैथानी। उनका परिवार मूलतः पौड़ी गढ़वाल (उत्तरांचल) का था; पर उनके पूर्वज टिहरी राज्य की सेवा में आ गये थे। वहीं 1921 में गजेन्द्र जी का जन्म हुआ। इसके बाद उनके पिताजी देहरादून की सुरम्य घाटी में स्थित भोगपुर गांव में आकर बस गये। उनकी आर्थिक सम्पन्नता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां उन्होंने दो गांव खरीद लिये थे। गजेन्द्र जी का बचपन एवं युवावस्था यहीं बीती।

1943 में देहरादून में पढ़ते समय वे स्वयंसेवक बने। श्री जगदीश प्रसाद माथुर उनसे दो कक्षा आगे पढ़ते थे, वही उस सायं शाखा के मुख्यशिक्षक थे। गजेन्द्र जी ने 1943, 44 और फिर 1947 में संघ शिक्षा वर्ग किये। उन दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश को दिल्ली प्रांत में माना जाता था, जिसके प्रांत प्रचारक श्री वसंतराव ओक थे। मेरठ में लगे प्रथम वर्ष के वर्ग में उनके ‘व्यक्ति और समाज’ विषय पर तीन बौद्धिक हुए। उनसे प्रभावित होकर गजेन्द्र जी ने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और फिर उसे अंतिम सांस तक निभाया।

प्रचारक बनने के बाद धामपुर, नजीबाबाद, मुजफरनगर, शाहजहांपुर और नैनीताल में संघ के विभिन्न दायित्वों पर रहकर उन्होंने काम किया। 1967-68 में उन्हें ‘भारतीय जनसंघ’ में काम करने के लिए भेजा गया। इसके बाद तो वे लगातार राजनीतिक क्षेत्र में ही काम करते रहे। इस क्षेत्र में काम करने वालों को प्रायः चुनाव लड़ने या विधान परिषद और राज्यसभा में पहुंचने की इच्छा जाग्रत हो जाती है; पर गजेन्द्र जी ने कभी इस ओर विचार नहीं किया। उन्होंने सदा संगठन संबंधी कार्यों को ही प्राथमिकता दी।

स्वास्थ्य संबंधी कारणों से जब प्रवास में उन्हें कठिनाई होने लगी, तो 1989 में उन्हें लखनऊ मंे प्रदेश भाजपा कार्यालय का प्रभारी बनाया गया। इसके बाद तो कार्यालय और गजेन्द्र जी एकरूप हो गये। वयोवृद्ध और सर्वाधिक अनुभवी होने के कारण सब उन्हें ‘ताऊ जी’ कहते थे। कार्यालय पर काम करने वाली सभी कर्मचारियों से वे परिवार के सदस्यों की तरह व्यवहार करते थे। इस नाते उनका सम्बोधन ‘ताऊ जी’ सार्थक ही था।

वे मधुमेह के तो लम्बे समय से रोगी थे; पर 2006 में शरीर के निचले भाग में अधरंग (पैरालेसिस) हो जाने से उनकी गतिविधियां थम सी गयीं। इसके बाद भी महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय उनसे परामर्श अवश्य किया जाता था। वे अपने अनुभव और स्पष्ट दृष्टिकोण के कारण एकदम सटीक सलाह देते थे।

बीमार होने बाद भी उनके मन का उत्साह एवं आशावाद कम नहीं हुआ। उनसे मिलने आने वाला हर व्यक्ति इसे अनुभव करता था। वे कहते थे कि अपने हाथ में काम करना है, सफलता या असफलता ईश्वर के हाथ में है। इसीलिए संगठन ने जो काम उन्हें सौंपा, उसे वे अपनी पूरी शक्ति से करते थे। जब तक संभव हुआ, सुबह-शाम वे कुछ देर के लिए कार्यालय में अवश्य बैठते थे। जब कोई उनके स्वास्थ्य का हाल पूछता, तो वे हंस कर कहते – इस उम्र में जैसा होना चाहिए, वैसा ही ठीक हूं। सहायक के माध्यम से वे व्यायाम करते और बरामदे में टहलते भी थे।

87 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 27 जून, 2008 की रात्रि में उन्होंने अपना जीवन सदा के लिए बदरीश भगवान के चरणों में विसर्जित कर दिया।