रक्षाबंधन में संशय है तो पढ़िए इस खबर को अंत तक

चार-पाँच दिन पहले मैंने लिखा था कि ” इस वर्ष रक्षा बंधन व उपाकर्म को लेकर संशय की स्थिति बन गयी है, क्योंकि कुछ पंचांगों में 11 अगस्त को बताया गया है, कुछ पंचांगों में 12 अगस्त को तथा कुछ पंचांगों में 11 एवं 12 दोनों दिन बताया गया है।
निष्कर्ष यही है कि रक्षाबंधन 11अगस्त को भद्रा के बाद रात में मनाना चाहिए, यही शास्त्रसम्मत है। 12 अगस्त को रक्षाबंधन नहीं है।
उपाकर्म के लिए वेद व शाखाओं के अनुसार अलग-अलग व्यवस्था व परम्परा है। वर्तमान में हमलोग शुक्ल यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं , हमलोगों का उपाकर्म 11अगस्त को दिन में चतुर्दशी के बाद पूर्णिमा में होगा।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्राम॔ दहति फाल्गुनी। । यहाँ श्रावणीपद से रक्षाबंधन (एवं फाल्गुनीपद से होलिकादाह) अभिप्रेत है , न कि उपाकर्म।
विस्तार से सप्रमाण तीन-चार दिन बाद ,तो आज आपके सामने लेख प्रस्तुत है। यद्यपि लेख में सारे प्रमाणों की व्याख्या, चर्चा या उपस्थापन नहीं किया गया है क्योंकि ऐसा करने पर लेख और बड़ा हो जाता और समय भी ज्यादा लगता । इसलिए कुछ बिन्दुओं पर ही चर्चा की गयी है ,फिर भी साक्ष्य या प्रमाण अधिकतम संलग्न हैं ताकि जिज्ञासु अपनी जिज्ञासा शान्त कर सकें।

निवेदन
लेख लिखने से पहले मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि यह मेरा लेख किसी के खण्डन या मण्डन के लिए नहीं है, बल्कि शास्त्रीय पक्ष को निष्पक्ष रूप से उपस्थापित करने का प्रयास है। इसमें मेरी अपनी कोई बात नहीं है, अपितु शास्त्रों एवं पूर्व आचार्यों के वचन हैं जिनको मैं यहाँ प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। कुछ पंचांगों में रक्षाबंधन /उपाकर्म 11 अगस्त को बताया गया है, कुछ पंचांगों में 12 अगस्त को और कुछ पंचांगों में 11 और 12 दोनों दिन बताया गया है। इससे सम्बंधित मैसेज भी खूब वायरल हो रहे हैं।
यद्यपि बहुत से पंचांगों में 12अगस्त को रक्षाबंधन बताया गया है ही, 12 को रक्षाबंधन मनाने में सुविधा भी है, क्योंकि सुबह ही सब कुछ सम्पन्न हो जायेगा। जो लोग (विशेष रूप से बड़े-बड़े नेता) अपने-अपने क्षेत्र की कन्याओं से रक्षा बंधन कराते हुए प्रदर्शन करते हैं उन्हें भी 12 अगस्त को ही सुविधा होगी, 11 अगस्त को भद्रा के बाद रात में सम्भव नहीं है। हमारे सरकारी कार्यालयों में भी प्रायः रक्षा बंधन की छुट्टी 12 अगस्त को ही है, अतः अधिकतम लोग 12 अगस्त को मनाना चाहेंगे या मनायेंगे भी।
पर आप जान लें कि किसी भी धार्मिक कार्य, पर्व या व्रत आदि का निर्णय न तो किसी की सुविधा के अनुसार होता है और न तो सरकारी छुट्टियों के अनुसार होता है। न तो शास्त्रविरुद्ध कल्पित तर्कों या युक्तियों से निर्णय होता है और न संख्या बल को देखकर निर्णय होता। बल्कि शास्त्रों के अनुसार ही निर्णय होता है। हमे श्रीमद्भगवद्गीता का वचन
“•तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।। •••” अवश्य याद रखना चाहिए कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, इसके लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं, शास्त्र विधान को जानकर तदनुसार ही कार्य करना चाहिए, शास्त्र विधि का त्याग कर मनमाने ढंग से किया गया कर्म न तो सुख या सिद्धि का हेतु होता है और न परलोक सिद्धि या मुक्ति का ही हेतु होता है । परम्परा भी वही मान्य है जो शास्त्र से अनुमोदित हो या शास्त्र से अविरुद्ध हो या जहाँ (विवाह आदि में) शास्त्र ने परम्परा को महत्त्व दे रखा हो। क्या रात में जन्म दिन मनाया जा सकता है (जो कि जन्म दिन है तो दिन में मनाना चाहिए,जन्म रात्रि तो है नहीं कि रात में मनाया जाय फिर भी धूमधाम से सज-धज कर मनाते हैं) तो रक्षाबंधन मनाने में कैसी असुविधा ? वस्तुतः पर्याप्त (तीन या छः मुहूर्त से अधिक) पूर्णिमा होने पर भी धर्म सिन्धु के अनुसार रक्षाबंधन का समय अपराह्ण या प्रदोष ही बताया गया है। यह अलग बात है कि हमलोग प्रायः सुबह ही रक्षाबंधन सम्पन्न कर लेते हैं , दोपहर तक पहुँचते ही कहाँ हैं, फिर प्रदोष की क्या बात की जाय? अर्थात् रात में रक्षाबंधन नयी बात नहीं है पर हमें ज्ञात नहीं है इसलिए रात को रक्षाबंधन सुनकर कुछ अटपटा-सा लग रहा है। फिर भी किसी को असुविधा है, शास्त्र से कोई लेना-देना है नहीं, तो वह 12 अगस्त को मनाये या 11 अगस्त को सुबह, दोपहर,शाम को मनाये या अपनी इच्छा से जब चाहे तब मनाये या न मनाये, वह स्वतंत्र है। मेरा प्रयास तो बस शास्त्रीय पक्ष को रखने का है, अतः मेरे पास जो ग्रन्थ (प्रमाण) हैं और उनकों मैंने जहाँ तक समझा है तदनुसार आपके सामने प्रस्तुत है। निर्णय यही है कि रक्षाबंधन या हमलोगों का उपाकर्म 11 अगस्त को ही उचित व शास्त्र सम्मत है जिसका सप्रमाण विवेचन नीचे प्रस्तुत है। अतः इस लेख पर प्रतिकूल टिप्पणी करने से पूर्व एक बार लेख एवं संलग्न छायाप्रति या तत्सम्बद्ध ग्रन्थ को ठीक से अवश्य पढ़ लें ताकि अनपेक्षित टिप्पणी से बच सकें। हाँ, जो कुछ प्रमाण रूप में संलग्न है तदतिरिक्त एवं तद्विरुद्ध यदि प्रबल प्रमाण है तो आप अवश्य प्रस्तुत कर सकते हैं।

रक्षाबंधन का निर्णय
अब हम रक्षाबंधन एवं उपाकर्म में सबसे पहले रक्षाबंधन की चर्चा करते हैं। रक्षाबंधन पर निर्णयसिन्धु एवं धर्मसिन्धु के वचन ज्यादा प्रचारित हो रहे हैं ।
जब हम किसी पर्व या व्रत के निर्णय की बात करते हैं तो निर्णयसिन्धु,धर्मसिन्धु आदि ग्रन्थ मुख्य रूप से हमारे लिए उपादेय होते भी हैं,क्योंकि इन ग्रन्थों में अनेक शास्त्रीय वचनों का एकत्र संकलन प्राप्त हो जाता है। अतः यहाँ भी सबसे पहले निर्णय सिन्धु की पंक्तियाँ यथाक्रम भावानुवाद के साथ प्रस्तुत हैं—

निर्णय सिन्धु में रक्षाबंधन के बारे में कहा गया है-
सम्प्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये।
स्नानं कुर्वीत मतिमान् श्रुतिस्मृतिविधानतः।।
उपाकर्मादिकं प्रोक्तमृषीणां चैव तर्पणम्।
शूद्राणां मन्त्ररहितं स्नानं दानं च शस्यते।
उपाकर्मणि कर्तव्यमृषीणां चैव पूजनम्।।
ततोऽपराह्णसमये रक्षापोटलिकां तथा।
कारयेदक्षतैःशस्तैःसिद्धार्थैर्हेमभूषितैः।।
अर्थात् इन श्लोकों का संक्षिप्त भाव यह है कि श्रावण मास के अन्त में पूर्णिमा के दिन उदय काल अर्थात् प्रातः काल श्रुति व स्मृतियों के विधान के अनुसार स्नान कर उपाकर्म, ऋषितर्पण व ऋषि पूजन करना चाहिए। उसके बाद अपराह्ण काल में अक्षत,सिद्धार्थ आदि से रक्षापोटली (आज कल उसके स्थान पर रक्षासूत्र या राखी प्रचलन में आ गयी है , इसका भी प्रमाण है) का निर्माण कर रक्षाबंधन करना चाहिए।

अब यहाँ उपाकर्म के अनन्तर रक्षाबंधन लिखा हुआ है, अतः जिज्ञासा होती है कि क्या उपाकर्म करने के बाद ही रक्षाबंधन करना चाहिए या उपाकर्म के बिना भी रक्षाबंधन हो सकता है?

इसके उत्तर में निर्णयसिन्धुकार लिखते हैं-
” अत्रोपाकर्मानन्तर्यस्य पूर्णातिथावार्थिकस्यानुवादो न तु विधिः, गौरवात् प्रयोगविधिभेदेन क्रमायोगाच्छूद्रादौ तदयोगाच्च।तेन परेद्युरुपाकरणेऽपि पूर्वेद्युरपराह्णे तत्करणं सिद्धम्”।
अर्थात् इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि उपाकर्म के बाद ही रक्षाबंधन करना चाहिए,ऐसी विधि( विधान) नहीं है, अपितु सामान्यरूप से ऐसा होता देखा गया है। यदि उपाकर्म के बाद ही रक्षाबंधन का विधान मान लिया जाय तो जिनको उपाकर्म का अधिकार नहीं है उनके रक्षाबंधन की व्यवस्था नहीं हो पायेगी,जबकि रक्षाबंधन में सबका अधिकार है, कहा गया है-
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैःशूद्रैरन्यैश्च मानवैः।
कर्तव्यो रक्षिताचारो द्विजान् सम्पूज्य शक्तितः।।
इसलिए उपाकर्म के आगे-पीछे होने पर भी रक्षाबंधन पूर्व दिन ही होता है ।

🌷आगे निर्णयसिन्धुकार लिखते हैं-
“इदं भद्रायां न कार्यम्।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्राम॔ दहति फाल्गुनी।। इति संग्रहोक्तेः।”
अर्थात् भद्रा में रक्षाबंधन नहीं करना चाहिए। यहाँ श्रावणीपद से रक्षा बंधन और फाल्गुनी पद से होलिकादाह अभिप्रेत है तथा इस श्लोक का अर्थ है कि भद्रा में रक्षाबंधन और होलिका दाह नहीं करना चाहिए,भद्रा में रक्षाबंधन करने पर राजा या जिसका रक्षाबंधन किया जाता है उसकी हानि होती है तथा होलिकादाह करने पर ग्राम दाह होता है। इस श्लोक का तात्पर्य भद्रा में रक्षाबंधन के निषेध में है।

यदि पूर्णिमा में पूरे दिन भद्रा हो तो क्या करना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में लिखा है-

” तत्सत्त्वे तु रात्रावपि तदन्ते कुर्यादिति निर्णयामृते।”

अर्थात् यदि दिन में भद्रा हो तो भद्रा के बाद रात में भी रक्षाबंधन करें।
ध्यान दें– यहाँ रात में रक्षाबंधन की बात केवल निर्णयसिन्धुकार ही नहीं कर रहे हैं अपितु धर्मसिन्धुकार,पारस्करगृह्य सूत्र के भाष्यकार गदाधर आदि अनेक आचार्यों ने भी बताया है। आचार्यों ने भद्रा के बाद रात में रक्षाबंधन को प्रशस्त बताते हुए यहाँ तक कहा है कि
” दिनार्द्धात् परतश्चेत् स्यात् श्रावणी कालयोगतः।
रात्रौ भद्रावसाने तु रक्षाबन्धः प्रशस्यते।।”

अब प्रश्न यह है कि यदि रात में भद्रा समाप्त हो रही हो और अगले दिन प्रातःपूर्णिमा मिल रही हो तो अगले दिन सूर्योदय के बाद प्रतिपदा(एकम) शुरु होने से पहले सुबह-सुबह पूर्णिमा में रक्षाबंधन कर लेने में क्या हानि है ?
11 अगस्त को रात में भद्रा समाप्त हो रही है और 12 अगस्त को सुबह पूर्णिमा है ही, अतः 12 अगस्त को सुबह रक्षाबंधन क्यों न कर लिया जाय ?
इस प्रश्न के उत्तर में निर्णयसिन्धुकार लिखते हैं –

” इदं प्रतिपद्युतायां न कार्यम्।
नन्दाया दर्शने रक्षा बलिदानं दशासु च।
भद्रायां गोकुले क्रीडा देशनाशाय जायते।।

अर्थात् प्रतिपदा (एकम) तिथि से युक्त पूर्णिमा में रक्षाबंधन नहीं करना चाहिए , करने से देश/स्थान की क्षति होती है।
ध्यान रहे कि यह निषेध तीन मुहूर्त (6 घटी अर्थात् 2 घंटे 24मिनट) या मतान्तर से छः मुहूर्त ( 12 घटी अर्थात् 4 घंटे 48 मिनट) से कम पूर्णिमा हो तब है। जैसा कि इस वर्ष 12 अगस्त को पूर्णिमा तीन मुहूर्त से कम है और प्रतिपद् से युक्त है अतः रक्षाबंधन के लिए पूर्णतः निषिद्ध है। उदाहरण के लिए मान लीजिए सूर्योदय प्रातः 05-30 बजे हो रहा है तो 05-30 में 3 मुहूर्त अर्थात् 6घटी अर्थात् 2घंटे 24 मिनट जोड़ने पर 07-54 आयेगा और 6 मुहूर्त अर्थात् 12 घटी अर्थात् 4 घंटे 48 मिनट जोड़ने पर 10-18 आयेगा, तदनुसार यदि 07-54 बजे तक पूर्णिमा होती तो रक्षाबंधन के लिए उपयुक्त व ग्राह्य होती तथा 10 -18 बजे तक होती तो वाजसनेयी शाखा वाले हमलोगों के लिए उपाकर्म हेतु ग्राह्य होती। पर 12 12 अगस्त को 7 बजकर 54 मिनट तक पूर्णिमा नहीं है, उससे पहले ही समाप्त/ प्रतिपद् से विद्ध हो जा रही है। अतः 12 अगस्त की पूर्णिमा रक्षाबंधन एवं हमलोगों के उपाकर्म के लिए बिल्कुल उचित नहीं है। यहाँ उदाहरण के लिए समय 5-30 मानकर दिखाया है, वास्तविक समय अपने स्थानीय पंचांग में सूर्योदय का समय एवं पूर्णिमा कब तक है , देखकर जान सकते हैं।

अब कुछ लोग लिखकर वायरल कर रहे हैं कि
यां तिथिं समनुप्राप्य उदयं याति भास्करः।
सा तिथिःसकला ज्ञेया व्रतदानाध्ययनादिषु।।••••
अर्थात् जिस तिथि में सूर्योदय होता है उस तिथि को व्रत,दान, अध्ययन आदि के लिए पूरे दिन (अहोरात्र) मान लेना चाहिए।
कुछ लोग निर्णयसिन्धु में उद्धृत-
” सम्प्राप्ते श्रावणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये ” में दिनोदय का अर्थ सूर्योदय कर रहे हैं अर्थात् उनका तात्पर्य है कि “पौर्णमास्यां दिनोदये = पूर्णिमा में जब दिन का उदय हो तब रक्षाबंधन करना चाहिए। ऐसा लिखकर वायरल कर रहे हैं।
ये दोनों बातें यहाँ के लिए ठीक नहीं है। जिस तिथि में सूर्योदय हो रहा उस तिथि को पूरे दिन मानना चाहिए, यह उत्सर्ग ( सामान्य) नियम है जो अपवाद के अविषय/अप्रवृत्ति में लगता है। पर जहाँ अपवाद है वहाँ यह नियम नहीं लगेगा। दूसरी बात ” पौर्णमास्यां दिनोदये “में प्रयुक्त दिनोदय का तात्पर्य दिन के उदय काल में अर्थात् प्रातः काल में स्नान आदि में है, न कि सूर्योदय में।
अब प्रश्न है कि किस आधार पर आप कह रहे हैं कि 12 अगस्त को उदय तिथि नहीं ली जायेगी ? अर्थात् 12 अगस्त को पूर्णिमा में सूर्योदय हो रहा है उसको छोड़कर 11 अगस्त को चतुर्दशी के बाद आने वाली पूर्णिमा अर्थात् पूर्वविद्धा पूर्णिमा ली जायेगी, इसका आधार या प्रमाण क्या है ?
इस प्रश्न के उत्तर में गार्ग्य ऋषि का वचन है –
श्रावणी पौर्णमासी तु संगवात् परतो यदि।
तदैवौदयिकी ग्राह्या नान्यदौदयिकी भवेत्।।
इस श्लोक का अर्थ है कि श्रावण की पूर्णिमा यदि संगव काल के बाद तक हो तभी औदयिक (उदय तिथि के अनुसार) पूर्णिमा ली जायेगी, यदि संगव काल से कम समय तक पूर्णिमा है तो उदय कालिक पूर्णिमा नहीं ली जायेगी।
अब आप विचार करें कि संगव काल कहते हैं सूर्योदय से तीन मुहूर्त के बाद आने वाले तीन मुहूर्त को। अर्थात् छः मुहूर्त तक पूर्णिमा रहेगी तब संगव काल तक मानी जायेगी। ” संगव काल के बाद तक ” का तात्पर्य है कि छः मुहूर्त के बाद तक पूर्णिमा हो तब उदय कालीन पूर्णिमा ली जायेगी। एक घटी में 24 मिनट होते हैं। दो घटी का एक मुहूर्त होता है अर्थात् 48 मिनट का 1मुहूर्त होता है। चूंकि छःमुहूर्त तक संगव काल है। छः मुहूर्त का तात्पर्य 6×2=12 घटी, 12 घटी का तात्पर्य 12×24=288मिनट अर्थात् 4घंटे 48 मिनट। तदनुसार यदि सूर्योदय के बाद 4घंटे 48 मिनट तक या उसके बाद तक पूर्णिमा रहे तब उदय तिथि के अनुसार पूर्णिमा ली जायेगी। श्रावण पूर्णिमा के लिए यह विशेष नियम है। यदि इससे कम पूर्णिमा है तो नहीं ली जायेगी। इस सन्दर्भ में शिंगाभट्टीय का भी वचन है-
श्रवणःश्रावणं पर्व संगवस्पृग्यदा भवेत्।
तदैवौदयिकं कार्यं नान्यदौदयिकं भवेत्।।
इसका भी तात्पर्य प्रायः वही है । संगव स्पर्श करती हो अर्थात् तीन मुहूर्त से अधिक छः मुहूर्त तक पूर्णिमा व्याप्त हो तभी औदयिक पूर्णिमा मानकर तत्सम्बद्ध कार्य करना चाहिए, अन्यथा नहीं।
यदि तीन या छः मुहूर्त से अधिक पूर्णिमा है और उसके बाद प्रतिपद् आती है तो वह प्रतिपद् या उस प्रतिपद् से युक्त पूर्णिमा दोष कारक नहीं है, अपितु ग्राह्य है। अतः “प्रतिपन्मिश्रिते नैव नोत्तराषाढसंयुते••• इत्यादि वचनों के आधार पर प्रतिपद् युक्त पूर्णिमा का हमेशा निषेध जो कहते हैं वे गलत एवं अप्रामाणिक हैं। प्रतिपद् से युक्त पूर्णिमा का तभी निषेध है जब वह पूर्णिमा तीन या छः मुहूर्त से कम हो। अथवा इस वचन का तात्पर्य श्रवण नक्षत्र के प्राशस्त्य बोधन में है। संयोग से इस वर्ष की पूर्णिमा तीन मुहूर्त से कम है इसलिए इस साल की 12 अगस्त वाली पूर्णिमा अग्राह्य है। तीन या छः मुहूर्त से अधिक होती तो ग्राह्य होती।
ब्रह्मवैवर्त पुराण का वचन है कि
श्रावणी दुर्गनवमी दूर्वा चैव हुताशनी।
पूर्वविद्धा प्रकर्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनम्।।
इसका आशय है कि श्रावणी पूर्वविद्धा करनी चाहिए । ज्ञात हो कि पूर्वविद्धा श्रावणी 11 अगस्त को है। यद्यपि इस वचन को कमलाकर भट्ट ने श्रवणा(सर्पबलि आदि) परक माना है फिर भी कृत्यसारसमुच्चय आदि कई ग्रन्थों में इस वचन को उपाकर्म व रक्षाबंधन परक माना गया है।

भूतविद्धा न कर्तव्या दर्शपूर्णा कदाचन।
वर्जयित्वा सुरश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्। ।
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी।
अमावस्या तृतीया च ता उपोष्याःपरान्विताः।।
इत्यादि वचनों द्वारा
चतुर्दशीविद्ध पूर्णिमा का निषेध व्रत के लिए है, श्रावणी के लिए नहीं। श्रावणी के लिए चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा को प्रशस्त मानते हुए महाफल दायक माना गया है। इस सन्दर्भ में बृहद् यम का कथन है-

युग्माग्निक्रतुभूतानि षण्मुन्योर्वसुरन्ध्रयोः।
रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा। ।
प्रतिपद्यप्यमावस्या तिथ्योर्युग्मं महाफलम्।
एतद् व्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुराकृतम्।।

धर्मसिन्धुकार रक्षाबंधन के विषय में लिखते हैं-

अथ रक्षाबन्धनमस्यामेव पूर्णिमायां भद्रारहितायां त्रिमुहूर्ताधिकोदयव्यापिन्याम् अपराह्णे प्रदोषे वा कार्यम्।”
अर्थात् इसका अर्थ है कि श्रावण की पूर्णिमा जब सूर्योदय से तीन मुहूर्त अर्थात् छःघटी ( 2घंटे 24 मिनट) से अधिक समय तक विद्यमान हो , भद्रा रहित हो तो इस पूर्णिमा के दिन अपराह्ण काल में या प्रदोष काल में रक्षाबंधन करना चाहिए।
यदि औदयिक पूर्णिमा सूर्योदय से तीन मुहूर्त से कम समय तक विद्यमान हो तो क्या करना चाहिए? (जैसा कि इस वर्ष 12 अगस्त को औदयिक पूर्णिमा तीन मुहूर्त से कम है )
तो इस प्रश्न के उत्तर में धर्मसिन्धुकार लिखते हैं-

उदये त्रिमुहूर्तन्यूनत्वे पूर्वेद्युर्भद्रारहिते प्रदोषादिकाले कार्यम्।”
अर्थात् यदि उदय कालीन पूर्णिमा तीन मुहूर्त से कम हो तो पूर्व दिन भद्रा के बाद प्रदोष आदि काल में रक्षाबंधन करना चाहिए। निर्णयसिन्धु और धर्मसिन्धु के अतिरिक्त पारस्करगृह्य सूत्र के गदाधर भाष्य, कृत्यसारसमुच्चय, वर्षकृत्यदीपक आदि अनेक ग्रन्थों में पूर्वोक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन व अनुमोदन हुआ है। यहाँ उन सारे ग्रन्थों की पंक्तियाँ लिखना अनावश्यक है क्योंकि यही विषय उन सबमें भी प्रतिपादित हैं और लिखना समयसाध्य होने से क्लेशकारक भी है। यथासम्भव सबकी छायाप्रति मैं संलग्न कर रहा हूँ, जिज्ञासु जन देख सकते हैं ।

मिथिला में रक्षाबंधन
महामहोपाध्याय श्रीमान् अमृतनाथ झा जी ने अपने कृत्यसारसमुच्चय नामक ग्रन्थ में लिखा है
” अथ रक्षाबन्धनम्। श्रावणपूर्णिमायां भद्राशून्यायां रक्षार्थं रक्षिकाबन्धनम्। भद्रायां तन्निषेधमाह स्मृतिः-
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्राम॔ दहति फाल्गुनी। ।इति।
इयं तु पूर्वविद्धा ग्राह्या-
श्रावणी दौर्गनवमी दूर्वा चैव हुताशनी।
पूर्वविद्धा तु कर्तव्या शिवरात्रिर्बलेर्दिनम्। ।
इति बृहद्यमवचनात् ।।”

इससे स्पष्ट है कि पूर्वविद्धा पूर्णिमा का अर्थात् 11 अगस्त की पूर्णिमा का ग्रहण करना चाहिए।
इस ग्रन्थ के व्याख्याकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र जी लिखते हैं-

“तत्तु भद्राशून्यायां श्रावणपूर्णिमायां रक्षिकाबन्धनं कर्तव्यम्। इयन्तु पूर्वविद्धैव ग्राह्या।•••”
(अर्थात् भद्रा रहित पूर्णिमा में रक्षाबंधन करना चाहिए, एतदर्थ पूर्णिमा चतुर्दशी से युक्त ही लेनी चाहिए)

इससे भी स्पष्ट है कि 11 अगस्त की पूर्णिमा ग्राह्य है।

परन्तु पर्वनिर्णय नामक निबंध ग्रन्थ में “रक्षिकाबन्धनम् ” शीर्षक से एक लेख प्रकाशित है पण्डितश्रीऋद्धिनाथ झा जी का।इस लेख में यद्यपि पूर्वविद्धा पूर्णिमा में रक्षाबंधन से सम्बन्धित वचनों का प्रतिपादन संक्षेप में किया गया है , पर उनको न तो स्वीकार किया गया है और न उनका सप्रमाण खण्डन ही किया गया है। अपितु यह निर्णय सिद्धान्त रूप में प्रस्तुत किया गया है कि मैथिलों की परम्परा /शिष्टाचार है कि औदयिक पूर्णिमा में ही रक्षाबंधन करते हैं। उनके अनुसार रात्रि में रक्षाबंधन के प्राशस्त्यसम्बन्धित वचनों का अभिप्राय भद्रा के निषेध में है,क्योंकि रात में ग्रहण आदि को छोड़कर अन्यत्र आशीर्वाद लेना-देना आदि शिष्टाचार से अनुमोदित नहीं है। इसके लिए शास्त्रीय आधार या प्रमाण क्या है? इस जिज्ञासा में कोई पुष्ट शास्त्रीय प्रमाण न देकर वे लिखते हैं-

“पूर्वविद्धा ग्राह्या उत परविद्धा इति विचिकित्सायां मैथिलशिष्टाचारपरिगृहीतत्वेन भद्रारहितायामौदयिक्यां पूर्णिमायामेव रक्षिकाबन्धनस्य परम्पराव्यवहारः।•••••मैथिलशिष्टाचारस्यापि शास्त्रमूलकत्वेन नाप्रामाण्यम्। अनन्तानि शास्त्राणि। न सर्वे निबन्धा इदानीमुपलभ्यन्ते। मैथिलव्यवहृतेरपि धर्मनिर्णायकत्वं शास्त्रसिद्धम्।तथाहि-धर्मस्य निर्णयो ज्ञेयो मिथिलाव्यवहारतःइति”

अर्थात् मैथिल शिष्टाचार है कि वे भद्रा रहित औदयिक पूर्णिमा में रक्षाबंधन करते हैं। मैथिलशिष्टाचार भी शास्त्रमूलक है, अतः उनका अप्रामाण्य नहीं है। क्योंकि अनन्त शास्त्र हैं। सभी उपलब्ध नहीं है,मैथिल व्यवहार भी धर्मनिर्णायक है ।
अब जब उनका शिष्टाचार व परम्परा है तो ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि उनके लिए 12 अगस्त की पूर्णिमा ग्राह्य होगी। इसलिए शायद अधिकतम मैथिल पंचांगों में 12 अगस्त को रक्षाबंधन व उपाकर्म बताया गया है। पर मैथिल वर्ग में भी यह 12 अगस्त वाली पूर्णिमा उन्हीं के यहाँ मान्य होगी जिनके यहाँ उक्त परम्परा है , अन्य लोगों के यहाँ 11 अगस्त को ही उचित है। उपाकर्म से सम्बद्ध 2 लेख भी इस ग्रन्थ में है।( इन सब की छायाप्रति नीचे संलग्न है। )। इसी प्रकार वर्षकृत्यदीपक में भी पूर्वविद्ध पूर्णिमा से सम्बद्ध वचनों का उपस्थापन कर उनका सप्रमाण खण्डन तो नहीं किया है पर औदयिक पूर्णिमा के मुहूर्त मात्र व्याप्त होने पर भी उसकी ग्राह्यता की ओर संकेत किया है, किन्तु तदर्थ पुष्ट प्रमाण न होने से विचारणीय है अभी।
भद्रा परिहार विचार -अर्द्धमौनी
कई लोग भद्रा का परिहार कर 11 अगस्त को दिन में ही रक्षाबंधन को उचित बता रहे हैं।
पहला कि भद्रा पाताल में है , धरती पर नहीं है। अतः यह भद्रा शुभ कारक है- स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात् पाताले सुखसम्पदः।मर्त्यलोके यदा भद्रा सर्वकार्यविनाशिनी।।
दूसरा परिहार है-
दिवाभद्रा यदा रात्रौ •••
अर्थात् दिन की ( तिथि के पूर्वार्ध वाली ) भद्रा रात में या रात की भद्रा दिन में आ जाय तो वह शुभकारक होती है। पूर्णिमा की भद्रा दिन(पूर्वार्ध) की है अतः सूर्यास्त के बाद रक्षाबंधन करना शुभ है।
तीसरा परिहार कि भद्रा के पुच्छ काल में दिन में रक्षाबंधन करना चाहिए।
चौथा परिहार कि मध्याह्न काल के बाद भद्रा प्रभाव शून्य होती है अतः दोपहर से रक्षाबंधन में कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
पाँचवाँ परिहार – कुछ लोग भद्रा की हंसी, नन्दिनी, त्रिशिरा, सुमुखी, करालिका, वैकृति, रौद्रमुखी , एवं चतुर्मुखी रूप नामतुल्य फल वाली संज्ञाओं के आधार पर कर रहे हैं। कुछ और भी परिहार पीयूषधारा टीका आदि ग्रन्थों में देखने को मिलते हैं ( भद्रा से सम्बद्ध पीयूषधारा टीका की छाया प्रति संलग्न है)।
इन परिहारों के विषय में इतना ही कहना चाहूँगा कि श्रवणयुक्त पूर्णिमा या उत्तरा व धनिष्ठा के कुछ भागों से युक्त पूर्णिमा जब भी होगी भद्रा पाताल में ही मिलेगी, फिर भद्रा का निषेध क्यों किया गया है? यदि कहें कि कुम्भ की भद्रा का निषेध है न कि मकर या धनु की भद्रा का , तो यह भी कहना उचित नहीं है क्योंकि यदि ऐसा होता हमारे पूर्वज भद्रा के बाद रात में रक्षाबंधन का विधान न करते। दिन में ही करते।
खैर, ज्यादा कुछ न कहकर निष्कर्ष के रूप यही कहना चाहूँगा कि परिहार अपरिहार्य स्थिति के लिए होता है । यदि अपरिहार्य स्थिति है तो परिहार को अपना कर अपना कार्य सम्पन्न कर सकते हैं, उससे दोष की न्यूनता /शून्यता हो जाती है। उत्तम पक्ष यही है कि भद्रा के बाद रक्षाबंधन किया जाय।

उपाकर्म-अर्द्धमौनी
उपाकर्म के लिए वेदों व शाखाओं के अनुसार अलग-अलग व्यवस्था व परम्परा है।
शौनक ऋषि का कथन है कि
अथातः श्रावणे मासे श्रवणर्क्षयुते दिने ।
श्रावण्यां श्रावणे मासि पञ्चम्यां हस्तसंयुते।।
दिवसे विदधीतैतदुपाकर्म यथोदितम्।
अध्यायोपाकृतिं कुर्यात् तत्रौपासनवह्निना।।
अर्थात् श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा में दिन में उपाकर्म करना चाहिए। यदि श्रवण और पूर्णिमा अलग-अलग दिन हो तो यजुर्वेदियों के लिए पूर्णिमा का दिन प्रशस्त है।
यदि उस दिन आधी रात से पूर्व ग्रहण या संक्रान्ति के कारण पूर्णिमा दूषित हो तो हस्त नक्षत्र से युक्त पंचमी में उपाकर्म करना चाहिए। शाखाभेद से आषाढ़ पूर्णिमा, भाद्रपद पूर्णिमा,ऋषि पंचमी आदि तिथियों में भी उपाकर्म का विधान है। वर्तमान में हमलोग यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं। अतः श्रावण पूर्णिमा में उपाकर्म विहित है पर यदि पूर्णिमा खण्डित हो /दो दिन हो तो तीन स्थितियां बनेंगी।
(1) यदि पूर्णिमा दूसरे दिन दो मुहूर्त से कम हो तो पूर्व दिन चतुर्दशी के बाद आने वाली पूर्णिमा में समस्त यजुर्वेदियों का उपाकर्म होगा।
(2) यदि दूसरे दिन पूर्णिमा दो मुहूर्त से अधिक एवं छः मुहूर्त (4घंटे 48मिनट) से कम हो तो तैत्तिरीय शाखा वालों के लिये औदयिक पूर्णिमा के दिन (दूसरे दिन)उपाकर्म होगा तथा तैत्तिरीयभिन्न समस्त यजुर्वेदियों का उपाकर्म पूर्व दिन चतुर्दशी के बाद आने वाली पूर्णिमा में होगा।
(3) यदि दूसरे दिन पूर्णिमा छः मुहूर्त से अधिक है तो समस्त यजुर्वेदियों का उपाकर्म दूसरे दिन होगा। अर्द्धमौनी
इसके अनुसार इस वर्ष 11 अगस्त को सुबह चतुर्दशी के बाद पूर्णिमा आ रही है और 12 अगस्त को दो मुहूर्त से अधिक परन्तु तीन मुहूर्त से कम समय तक (छः मुहूर्त से कम तो है ही) पूर्णिमा व्याप्त है। ऐसी स्थिति में 11 अगस्त वाली पूर्वविद्धा पूर्णिमा ही हम यजुर्वेदियों (तैत्तिरीय शाखा को छोड़कर)के लिए ग्राह्य है। इसका विस्तार से वर्णन निर्णयसिन्धु,धर्मसिन्धु,गदाधरभाष्य,कृत्यसारसमुच्चय आदि ग्रन्थों में है। रक्षाबंधन के लिए जितने प्रमाण हैं उनसे कई गुना अधिक उपाकर्म के विषय में हैं। सबको लिखने में यहाँ समय भी ज्यादा लगेगा और लेख भी बड़ा हो जायेगा, इसलिए सबका तात्पर्य रख दिया। पर सबकी छाया प्रति मैंने संलग्न कर दी है । जो जिज्ञासु हैं वे संलग्न प्रमाणों को या उनसे सम्बन्धित मूल ग्रन्थों को देख व पढ़ सकते हैं ।
उपाकर्म में भद्रा का दोष मान्य नहीं है।
“भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा ” यहाँ श्रावणी शब्द से रक्षा बंधन अभिप्रेत है, उपाकर्म नहीं। क्योंकि
श्रावण्यां श्रावणीकर्म यथाविधि समाचरेत्।
उपाकर्म तु कर्तव्यं कर्कटस्थे दिवाकरे।।
इत्यादि वचनों में श्रावणी से अलग उपाकर्म का उल्लेख है।
निष्कर्ष रूप में आपके सामने प्रस्तुत कर दिया। जो विस्तार से जानना चाहते हैं , वे संलग्न छायाप्रति या तत्सम्बद्ध ग्रन्थ देख लें।

निष्कर्ष -अर्द्धमौनी
निष्कर्ष यही है कि रक्षाबंधन एवं हमलोगों का उपाकर्म 11 अगस्त को है , 12 अगस्त को शास्त्र सम्मत नहीं है।

फिर भी यदि किसी ने 12 को रक्षाबंधन प्रचारित कर दिया है, यदि वे संशोधित कर लें, 11 अगस्त को प्रचारित करें तो अत्युत्तम , क्योंकि आरम्भ काल में प्रकाशन या प्रचार के समय उतनी गहराई से प्रायः विचार न होने के कारण अनवधान हो जाता है, गहराई से विचार तब होता है जब विषय विवादित हो जाय। अतः दोष किसी का नहीं है। जब समझ में आ जाय , सही पक्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि किसी कारण से किन्हीं को 12 अगस्त को बदलना सम्भव नहीं हो पा रहा है या किसी कारण से 12 अगस्त को ही रक्षाबंधन की विवशता है, उनसे अनुरोध है कि सूर्योदय के बाद दिन बदलेगा, उससे पहले अर्थात् वे 12 अगस्त को सूर्योदय से पूर्व ब्राह्म मुहूर्त में कर लें। इससे प्रतिपद् वेध आदि दोषों से बचा जा सकता है, सूर्योदय होते ही रक्षाबंधन निषिद्ध हो जायेगा। वस्तुतः 11 अगस्त को रक्षाबंधन करना उत्तम पक्ष है। आगे आपलोगों की जैसी इच्छा। आचार्य धीरशान्त दास अर्द्धमौनी, धर्मगुरु एवं मठ-मन्दिर विभाग प्रमुख विहिप।