पुण्य-तिथि:देश से दूर प्राणान्त किए थे मौलाना बरकतउल्ला

भारतीय स्वतन्त्रता का संघर्ष स्वयं में अभूतपूर्व था। जहाँ एक ओर यह देश के अन्दर लड़ा गया, वहाँ देश से बाहर भी इसके लिए लड़ने वालों की कमी नहीं थी। अनेक नेता एवं क्रान्तिकारी ऐसे भी थे, जिन्होंने विदेशी धरती पर अन्तिम साँस ली। ऐसे ही एक स्वतन्त्रता सेनानी थे मौलाना बरकतउल्ला।

बरकतउल्ला का जन्म भोपाल में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड चले गये। वहाँ से कुछ साल बाद वे लिवरपूल गये और वहाँ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध ओरियण्टल कॉलेज में अरबी भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक बन गये; पर उनका उद्देश्य पढ़ाना मात्र नहीं था। उनके मन में तो भारत की स्वतन्त्रता का सपना पल रहा था। वे ऐसे लोगों की तलाश में लग गयेे, जो इस कार्य में उन्हें राह दिखा सकें।

कहते हैं जिन खोजा, तिन पाइयाँ। सौभाग्य से उनकी भेंट प्रख्यात क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गयी, जो विदेशों में भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रयासरत थे। अब वे श्यामजी के निर्देश पर काम करने लगे। इंग्लैण्ड में 11 वर्ष बिताकर वे न्यूयार्क चले गये। वहाँ उन्हें अरबी भाषा पढ़ाने का काम मिल गया। इसके बाद वे एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ जापान गये, तो टोक्यो विश्वविद्यालय में उन्हें उर्दू का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। यहाँ उन्होंने जापानी और अंग्रेजी भाषा में ‘इस्लामिक फ्रैटर्निटी’ नामक पत्र निकाला। इसके द्वारा वे ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का खुला विरोध करने लगे।

धीरे-धीरे इस पत्र और मौलाना बरकतुल्ला की लोकप्रियता बढ़ने लगी। इस पर ब्रिटिश राजदूत ने जापान सरकार पर उन्हें हटाने के लिए दबाव डाला। जापान शासन को मजबूर होकर इन्हें विश्वविद्यालय की सेवा से मुक्त करना पड़ा। इस पर वे फ्रान्स आ गये और चौधरी रहमत अली तथा पण्डित रामचन्द्र के साथ ‘इन्कलाब’ नामक पत्र निकालने में सहयोग करने लगे; पर कुछ समय बाद उन्हें फ्रान्स भी छोड़ना पड़ा।

अब वे कैलिफोर्निया के प्रमुख नगर सैनफ्रान्सिस्को आ गये। यहाँ उनका सम्पर्क भाई परमानन्द और लाला हरदयाल से हुआ। इन तीनों ने अमरीका और कनाडा के प्रमुख नगरों में सभाएँ कीं। इससे इन देशों में भारत की स्वतन्त्रता का मामला गरमाने लगा और बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय इनके साथ जुड़ने लगे। इन नगरों के गुरुद्वारे आजादी के प्रयासों के केन्द्र बन गये।

इसी के परिणामस्वरूप आगे चलकर ‘गदर पार्टी’ का जन्म हुआ, जिसने विदेशों में क्रान्ति की अलख जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1857 की क्रान्ति की स्मृति में वहाँ जो सभा हुई, उसमें पहली बार 1,500 डॉलर एकत्र हुए। मौलाना बरकतउल्ला ने वहाँ जो भाषण दिया, वह बहुत चर्चित हुआ। आगे चलकर जब काबुल में भारत की पहली अन्तरिम निर्वासित सरकार का गठन हुआ, तो क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप को राष्ट्रपति और मौलाना बरकतउल्ला को प्रधानमन्त्री बनाया गया।

1927 में ब्रुसेल्स के साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन में गदर पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में बरकतउल्ला सम्मिलित हुए। वहाँ से लौटकर वे बहुत बीमार पड़ गये। 20 सितम्बर, 1927 को उनका देहान्त हो गया और कैलिफोर्निया में ही उन्हें दफना दिया गया। मौलाना ने परतन्त्र भारत की धरती पर पैर न रखने की शपथ ली थी। इसे उन्होंने अन्तिम समय तक निभाया।