सरदार पटेल जयंती पर अनछुआ रहस्य: इस तरह पीएम बने जवाहर लाल नेहरू
1946 में जैसे-जैसे भारत को आजादी मिलने की उम्मीदें बढ़ रहीं थी वैसे-वैसे कांग्रेस के द्वारा सरकार के गठन की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी। सभी की निगाहें कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर टिकी हुई थीं क्योंकि ये लगभग तय हो चुका था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा वही भारत के प्रधानमंत्री के पद के लिए भी चुना जाएगा। भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनने के कारण कांग्रेस का ज्यादातर नेता जेल में थे। छह साल से अध्यक्ष पद का चुनाव ना हो पाने के कारण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली हुई थी।
1946 में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होने थे, मौलाना आज़ाद भी इस चुनाव नें भाग लेना चाहते थे और साथ ही प्रधानमंत्री भी बनने के इच्छुक थे। लेकिन महात्मा गांधी के साफ मना कर देने के बाद उन्हें यह विचार छोड़ना पड़ा। मौलाना आजाद को मना करने के साथ-साथ गांधी ने ये जाहिर कर दिया था कि उनका समर्थन नेहरू के साथ है।
29 अप्रैल 1946 अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की आखिरी तारीख थी। इस नामांकन में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि नेहरू को गांधी के समर्थन के बाद भी राज्य की कांग्रेस समिति द्बारा समर्थन नहीं मिला। सिर्फ इतना ही नहीं, 15 राज्यों में से करीबन 12 राज्यों ने सरदार पटेल को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित किया और बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी समर्थन नहीं किया। 12 राज्यों द्बारा मिला समर्थन सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाने के लिए काफी था।
गांधी चाहते थे कि नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाले इसलिए उन्होंने जे बी कृपलानी पर दबाव डाला कि वे कांग्रेस कार्य समिति के कुछ सदस्यों को नेहरू को समर्थन देने के लिए राज़ी करें। गांधी के दबाव में कृपलानी जी ने कुछ सदस्यों को इस बात के लिए मना भी लिया। नेहरू को समर्थन दिलवाने के लिए जो भी गांधी कर रहे थे वो कांग्रेस के संविधान के खिलाफ था। सिर्फ इतना ही नहीं, इसके बाद गांधी ने सरदार पटेल से मुलाकात कर कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार की दौड़ से हट जाने का निवेदन किया। सरदार पटेल सारी कूटनीति को समझते हुए भी कांग्रेस की एकता बनाए रखने के लिए गांधी का ये निवेदन स्वीकार कर लिया जिसके कारण नेहरू प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार बन गए।