हिन्दी के उत्प्रेरक हरिबाबू कंसल को जानिए

हिन्दी और हिन्दू के लिए समर्पित श्री हरिबाबू कंसल का जन्म 17 जून, 1922 को बुलंदशहर (उ.प्र.) में श्री रेवतीशरण एवं श्रीमती परमेश्वरी देवी के घर में हुआ था। छात्र जीवन में ही वे संघ के स्वयंसेवक बने। डाक-तार विभाग से उन्होंने सरकारी सेवा प्रारम्भ की। इसके बाद वे केन्द्रीय सचिवालय में आ गये। इस दौरान उन्हें अनेक विभागों तथा देशों में काम करने का अवसर मिला। नौकरी करते हुए ही उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. किया।

हरिबाबू हिन्दी के दीवाने थे। हिन्दी राजभाषा घोषित होने के बाद सरकारी काम में हिन्दी का प्रचलन करने के लिए उन्होंने अनथक प्रयत्न किये। वे जहां भी रहे, वहां इसके लिए एक अच्छी टोली बना दी। उनका विचार था कि केवल शासकीय प्रयत्नों से हिन्दी का प्रसार नहीं होगा। इसके लिए कर्मचारियों तथा जनता को भी जागरूक होना होगा। अतः वे स्वयं इस प्रयास में लग गये। वे कहते थे कि ‘हिन्दी को लादो नहीं ला-दो।’

हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष सेठ गोविंददास के साथ हरिबाबू ने ‘हिन्दी व्यवहार वर्ष’ की योजना बनाई। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों के लिए नेमी कार्यालय टिप्पणियां, कार्यालयों में हिन्दी काम, कार्यालय सहायिका, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मसौदे, सेवा पंजी प्रविष्टियां, सरल हिन्दी शब्दकोश, कार्यालय दीपिका, कार्यालय प्रवीणता जैसी पुस्तकें प्रकाशित की गयीं।

हरिबाबू ने केन्द्रीय सचिवालय के हिन्दीप्रेमी मित्रों के साथ मिलकर तीन मई, 1960 को ‘केन्द्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद’ का गठन किया। कार्यालय के बाद वे इसके काम में लग जाते थे। उनका मत था कि किसी काम के लिए धन से अधिक धुन की आवश्यकता है। अतः केन्द्रीय कार्यालयों में काम की धुन सवार होने की प्रवृत्ति को ही ‘कंसलाइटिस’कहा जाने लगा।

असम में बोड़ो भाषा के लिए असमिया लिपि चलती थी। ईसाई मिशनरी चाहते थे कि यह रोमन लिपि में लिखी जाए। उन्होंने इसके लिए आंदोलन भी चलवाया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देवनागरी के पक्ष में थीं। अधिकारियों ने कहा कि यदि दस दिन बाद प्रारम्भ होने वाले सत्र से पूर्व पहली कक्षा की चार पुस्तकें देवनागरी लिपि में मिल जाएं, तभी यह संभव है। वे जानते थे कि सरकारी काम इतनी तेजी से नहीं होगा और फिर रोमन लिपि ही चल पड़ेगी।

पर जब यह बात हरिबाबू को पता लगी, तो उन्होंने सरकारी एवं कुछ निजी प्रेस वालों को तैयार कर लिया। रात-रात भर बैठकर उन्होंने स्वयं प्रूफ पढ़े और समय से पूर्व चारों पुस्तकों की चार लाख प्रतियां छपवाकर अधिकारियों को सौंप दीं। इस प्रकार बोड़ो भाषा के लिए देवनागरी लिपि चल पड़ी।

हरिबाबू ने हिन्दी के प्रसार के लिए लगभग 50,000 पत्र लिखे। हिन्दी लिखने एवं बोलने के लिए कर्मचारियों को प्रेरित करने के लिए लाखों पोस्टर एवं पत्रक कार्यालयों में लगवाए। कई विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भी उन्होंने भाग लिया। इस सेवा के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए अनेक शासकीय तथा निजी संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। उन्होंने अपने धन से एक धर्मार्थ न्यास बनाया, जो प्रतिवर्ष हिन्दीसेवियों को सम्मानित करता है।

1979 में भारत सरकार के उपसचिव पद से अवकाश प्राप्ति के बाद वे विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय हो गये। अपनी नौकरी के दौरान वे दुनिया के 50 से भी अधिक देशों में गये थे। उन संबंधों का लाभ उठाकर केवल पत्र-व्यवहार के माध्यम से उन्होंने कई देशों में परिषद की इकाइयां गठित कीं।

हिन्दी और हिन्दू की सेवा के लिए समर्पित श्री हरिबाबू कंसल का 18 फरवरी, 2000 को निधन हुआ।
(संदर्भ : सेवाव्रती हरिबाबू कंसल)
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