रानी लक्ष्मीबाई: खूब लड़ी मर्दनी, वो तो झांसी वाली रानी थी…

रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म- 19 नवंबर, 1835, वाराणसी; मृत्यु- 17 जून, 1858)

मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव की सभा में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से ‘छबीली’ बुलाने थे।

मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली। सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दियापर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।

27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तक पुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ।

7 मार्च, 1854 को ब्रिटिश सरकार ने एक सरकारी गजट जारी किया, जिसके अनुसार झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलने का आदेश दिया गया था। रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश अफसर एलिस द्वारा यह आदेश मिलने पर उन्होंने इसे मानने से इंकार कर दिया और कहा ‘ मेरी झाँसी नहीं दूंगी’और अब झाँसी विद्रोह का केन्द्रीय बिंदु बन गया। रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की सहायता से एक सेना तैयार की, जिसमे केवल पुरुष ही नहीं, अपितु महिलाएं भी सम्मिलित थी; जिन्हें युद्ध में लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था। उनकी सेना में अनेक महारथी भी थे, जैसे : सुन्दर – मुन्दर, काशी बाई, लाला भाऊ बक्शी, मोतीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श आदि। उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे।

10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका कारण था कि जो बंदूकों की नयी गोलियाँ थी, उस पर सूअर और गौमांस की परत चढ़ी थी। इससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर ठेस लगी थी और इस कारण यह विद्रोह देश भर में फ़ैल गया था। इस विद्रोह को दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा जरुरी था, अतः उन्होंने झाँसी को कुछ काल के लिए रानी लक्ष्मीबाई के अधीन छोड़ने का निर्णय लिया। इस समय सितम्बर – अक्टूबर, 1857 में रानी लक्ष्मीबाई को अपने पड़ोसी राज्यों ओरछा और दतिया के राजाओं के साथ युध्द करना पड़ा क्योकिं उन्होंने झाँसी पर चढ़ाई कर दी थी। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के मार्च माह में ब्रितानी सेना ने झांसी शहर को घेर लिया।

रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी वीरता से सामना किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया।

अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने अनुभव किया कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं।

वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।

उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।

कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला पद बढ़ाने का था।

इधर जनरल स्मिथ और मेजर रूल्स अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करते रहे और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 17 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंतत: उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया।

रानी को असहनीय वेदना हो रही थी परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वीरांगना लक्ष्मीबाई के मन में अंग्रेजों के प्रति किस भांति घृणा थी, वह इस बात से पता चल जाता है कि जब रानी का अंतिम समय आया, तब ग्वालियर की भूमि पर स्थित गंगादास की बड़ी शाला में रानी ने संतों से कहा कि कुछ ऐसा करो कि मेरा शरीर अंग्रेज न छू पाएं। इसके बाद रानी स्वर्ग सिधार गईं और बड़ी शाला में स्थित एक झोंपड़ी को चिता का रुप देकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया। और अंग्रेज देखते ही रह गए। हालांकि इससे पूर्व रानी के समर्थन में बड़ी शाला के संतों ने अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया, जिसमें 745 संतों का बलिदान भी हुआ, पूरी तरह सैनिकों की भांति अंग्रेजों से युद्ध करने वाले संतों ने रानी के शरीर की मरते दम तक रक्षा की।

वह 17 जून, 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित होकर ह्यूरोज को भी यह कहना पड़ा कि- “भारतीय क्रांतिकारियों में यह अकेली मर्द है।” विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।