जन्म-दिवसः सबकेे शंकराचार्य पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती

हिन्दू धर्म में शंकराचार्य का बहुत ऊँचा स्थान है। अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड एवं पूजा आदि के कारण प्रायः शंकराचार्य मन्दिर-मठ तक ही सीमित रहते हैं। शंकराचार्य की चार प्रमुख पीठों में से एक कांची अत्यधिक प्रतिष्ठित है। इसके शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती इन परम्पराओं को तोड़कर निर्धन बस्तियों में जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने अपनी छवि अन्यों से अलग बनाई। हिन्दू संगठन के कार्यों में वे बहुत रुचि लेते हैं। यद्यपि इस कारण उन्हें अनेक गन्दे आरोपों का सामना कर जेल की यातनाएँ भी सहनी पड़ीं।

श्री जयेन्द्र सरस्वती का बचपन का नाम सुब्रह्मण्यम था। उनका जन्म 16 जुलाई, 1935 को तमिलनाडु के इरुलनीकी कस्बे में श्री महादेव अय्यर के घर में हुआ था। पिताजी ने उन्हें नौ वर्ष की अवस्था में वेदों के अध्ययन के लिए का॰ची कामकोटि मठ में भेज दिया। वहाँ उन्होंने छह वर्ष तक ऋग्वेद व अन्य ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। मठ के 68 वें आचार्य चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने उनकी प्रतिभा देखकर उन्हें उपनिषद पढ़ने को कहा। सम्भवतः वे सुब्रह्मण्यम में अपने भावी उत्तराधिकारी को देख रहे थे।

आगे चलकर उन्होंने अपने पिता के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा की। वे भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए तिरुमला गये और वहाँ उन्होंने सिर मुण्डवा लिया। 22 मार्च, 1954 उनके जीवन का महत्वपूर्ण दिन था, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। सर्वतीर्थ तालाब में कमर तक जल में खड़े होकर उन्होंने प्रश्नोच्चारण मन्त्र का जाप किया और यज्ञोपवीत उतार कर स्वयं को सांसारिक जीवन से अलग कर लिया। इसके बाद वे अपने गुरु स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती द्वारा प्रदत्त भगवा वस्त्र पहन कर तालाब से बाहर आये।

इसके बाद 15 वर्ष तक उन्होंने वेद, व्याकरण मीमाँसा तथा न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। उनकी प्रखर साधना देखकर कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उनका नाम जयेन्द्र सरस्वती रखा। अब उनका अधिकांश समय पूजा-पाठ में बीतने लगा; पर देश और धर्म की अवस्था देखकर कभी-कभी उनका मन बहुत बेचैन हो उठता था। वे सोचते थे कि चारों ओर से हिन्दू समाज पर संकट घिरे हैं; पर हिन्दू समाज अपने स्वार्थ में ही व्यस्त है।

इन समस्याओं पर विचार करने के लिए वे एक बार मठ छोड़कर कुछ दिन के लिए एकान्त में चले गये। वहाँ से लौटकर उन्होेंने पूजा-पाठ एवं कर्मकाण्ड के काम अपने उत्तराधिकारी को सौंप दिये और स्वयं निर्धन हिन्दू बस्तियों में जाकर सेवा-कार्य प्रारम्भ करवाये। उन्हें लगता था कि इस माध्यम से ही निर्धन, अशिक्षित एवं व॰िचत हिन्दुओं का मन जीता जा सकता है।

उन्होंने मठ के पैसे एवं भक्तों के सहयोग से सैकड़ों विद्यालय एवं चिकित्सालय आदि खुलवाये। इससे तमिलनाडु में हिन्दू जाग्रत एवं संगठित होने लगे। धर्मान्तरण की गतिविधियों पर रोक लगी; पर न जाने क्यों वहाँ की मुख्यमन्त्री जयललिता अपनी सत्ता के मार्ग में उन्हें बाधक समझने लगी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक उन्हें जेल में ठूँस दिया; पर न्यायालय में सब आरोप झूठ सिद्ध हुए। जनता ने भी अगले चुनाव में जयललिता को भारी पराजय दी। आज भी खराब स्वास्थ्य और वृद्धावस्था के बावजूद पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती हिन्दू समाज की सेवा में लगे हैं।