मंडल कमीशनःपिछड़ी जातियों को लेकर आया छतरी की घनी छाँव

समानता केवल समान लोगों के बीच होती है, असमान(विषम) को समान के बराबर रखना असमानता को मजबूती प्रदान करना है। राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार के समय 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने की घटना ने आजादी के बाद की राजनीति को दो हिस्सों में बांट दिया-एक मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने से पहले की राजनीति और दूसरी उसके बाद की। इसे भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’ भी कह सकते हैं। अंग्रेज़ी के इस मुहावरे का मतलब है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। 1989 के आम चुनावों के परिणामों के बाद जनता दल के गठबंधन की सरकार के प्रधानमंत्री राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंहजी बने।यह दूसरा मौका था जब भारत में ग़ैर कांग्रेसी दल सत्ता के केंद्र में आया था।वीपी सिंह ने सबको चौंकाते हुए सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) को 27 फीसदी आरक्षण की मंडल आयोग की सिफ़ारिश प्रथम सिफारिश को लागू कर दिए।यह बोतल से एक जिन्न के बाहर आने के जैसा था। आखिर ऐसा क्या था मंडल कमीशन में जिसे बनने के बरसों बाद तक लागू न किया जा सका और लागू होने के बाद ऐसा भूचाल आया जिसके झटके अब तक महसूस हो रहे हैं।

कहानी मंडल कमीशन की
इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गए आपातकाल के 21 महीने झेलने के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर पिछड़े वर्ग के कई नेता चुनाव जीतकर संसद के गलियारे में पहुँचे। सरकार बनी गुजराती ब्राह्मण मोरार जी देसाई के नेतृत्व में। फिर देसाई सरकार ने कांग्रेसी सरकारों को भंग कर विधानसभाओं के चुनाव करवाए।इसमें भी जनता पार्टी की जीत हुई। बिहार में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी और बिहार के सामन्ती व सवर्ण दबंगई वाले राज्य में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अगले ही बरस बिहार की सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए मुंगेरीलाल कमीशन की सिफारिश पर 20 फीसदी आरक्षण का कानून बना दिया।उत्तर प्रदेश में में जनता पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री रामनरेश यादव जी ने भी छेदीलाल साथी के अध्यक्षता वाले सर्वाधिक पिछड़ावर्ग आयोग के आधार पर साथी के सुझाव पर पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी सेवाओं में 15 प्रतिशत आरक्षण का शासनादेश जारी कर दिया गया।इसके बाद केन्द्रीय सेवाओं में भी पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान की मांग उठने लगी।

*खूब लगाए गए अपशब्दों के नारे*
उत्तर प्रदेश और बिहार देश के बड़े राज्यों में सुमार हैं।कांग्रेसी सरकार में मुख्य रूप से ब्राह्मण व राजपूत जातियों का ही वर्चस्व रहा।वैश्य समाज से चन्द्रभानु गुप्ता व बनारसीदास व कायस्थ समाज से डॉ. सम्पूर्णानंद जी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की सूची में शामिल हैं।कांग्रेस की सरकार में शायद ही कोई पिछड़ा,अतिपिछड़ा कैबिनेट मंत्री बन पाया हो।कमोबेश तमिलनाडु को छोड़कर अदिकांश राज्यों में विधायिका व कार्यपालिका में मुख्यरूप से ब्राह्मण व कुछ हद तक राजपूत,कायस्थ जातियों का ही वर्चस्व था।बिहार,उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का नाई व यादव के मुख्यमंत्री बनने पर तो जातिवादी फिरकापरस्तों व सामन्तों की नींद हराम हो गयी।अब क्या था-रामनरेश यादव व कर्पूरी ठाकुर जी द्वारा पिछड़ी जातियों को आरक्षण देना सवर्णों के लिए जले पर नमक का काम किया।सवर्ण जातियाँ बौखला सी गयी।इन्होंने बाबू रामनरेश यादव व जननायक कर्पूरी ठाकुर जी को जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए चट्टी-चौराहों पर भद्दी भद्दी गालियाँ देने व नारेबाजी करने लगे।उस समय हम बहुत छोटे थे,पर सवर्ण लोगों ने जो नारा दे रहे थे,अभी तक याद है।उनकी भीड़ का हिस्सा अहीर,चमार,बीन, मल्लाह,कोयरी आदि भी थे,क्योंकि इन्हें पता ही नहीं था,कि ये सवर्ण हमारे ही अधिकार का विरोध कर रहे हैं।उनका नारा था-
1.ई आरक्षण कहाँ से आईल,
करपुरिया क माई बीआईल।
2.कर्पूरी करपुरा, दाढ़ी बना ले उस्तरा।
3.करपुरिया वापस जाओ,
छुरा लेकर दाढ़ी बनाओ।
4.रामनरेश वापस जाओ,
लाठी लेकर भैंस चराओ।
5.अहीर,गड़ेरिया, कुर्मी चोर।
धर सालों की टँगरी तोड़।
यह थी पिछड़ी जातियों के प्रति जातिवादी सवफनों की मानसिकता।

*जनता पार्टी सरकार ने रखी मंडल कमीशन की नींव*
13 दिसम्बर,1946 को संविधान सभा मे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि शेड्यूल कास्ट व शेड्यूल ट्राइब के अलावा एक और वर्ग अदर बैकवर्ड क्लास भी है।इस वर्ग के कल्याण के लिए भी नीतियाँ बनाने की जरूरत है।1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने पिछड़े वर्गों के लिए काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ावर्ग आयोग का गठन किया था,जिसे काका कालेलकर आयोग कहा जाता है।लेकिन इसकी सिफारिशें लागू नहीं की गई थीं।काका कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक खामी यह थी कि उसमें सिर्फ हिन्दुओं में ही पिछड़ेपन की पहचान की गई थी, बाकी धर्म छूट गए थे। इन्हीं सब परिस्थितियों को देखते हुए 20 दिसंबर 1978 को मोरारजी देसाई की सरकार ने बिहार के मधेपुरा से सांसद बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की। जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है।
जनवरी 1979 में मंडल आयोग ने अपना काम शुरू किया।कुछ ही महीनों के बाद जुलाई 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिरा दी गई।अटल बिहारी बाजपेयी ने जनसंघ के सांसदों को अलग कराकर व जनता पार्टी सरकार से समर्थन वापस लेकर देसाई सरकार को अल्पमत में ला दिया।इसके बाद जनता पार्टी टूट गई।नई बनी जनता पार्टी (सेक्युलर) ने सत्ता संभाली, पीएम बने चौधरी चरण सिंह,जिसे कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था। लेकिन कुछ ही महीनों में यह सरकार भी चली गई। फिर मध्यावधि चुनाव हुए। इस मध्यावधि चुनाव में बीपी मंडल एक बार फिर जनता पार्टी (चरण सिंह-राजनारायण गुट वाली नहीं बल्कि चंद्रशेखर और जगजीवन राम वाली) के उम्मीदवार बने।लेकिन इस बार वे तीसरे स्थान पर खिसक गए। उन्हें हराया कांग्रेस (उर्स) के राजेन्द्र प्रसाद यादव ने।वही राजेन्द्र प्रसाद यादव जिन्होंने उन्हें 1971 में भी हराया था।इनकी हार का खाका चन्द्रशेखर ने अंदर अंदर पहले से ही खींच दिया था।

*वीपी सिंह और ‘सामाजिक न्याय’ की पटकथा*
वर्ष 1980 के चुनाव में इन्दिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई थी। दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को सौंप दी। इस रिपोर्ट में सभी धर्मों के पिछड़े वर्ग की साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा जातियों की पहचान की गई। कमीशन ने उन्हें सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की।52 फीसद ओबीसी को सिर्फ 27 फीसद कोटा कि सिफारिश इसलिए कि गयी,क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा था कि आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। अनुसूचित जाति व जनजाति को पहले से ही 22.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जा चुका था,जिसके कारण 27 प्रतिशत की ही सिफारिश की गई।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट इंदिरा और राजीव गांधी के राज में धूल फांकती रही। 2 दिसंबर 1989 से वीपी सिंह का राज शुरू हुआ। 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की फाइल की धूल झाड़ कर उसे निकाला। अब वक्त आ गया था भारत की राजनीति में एक नए सामाजिक न्याय के मसीहा के उदय का। 7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा के साथ ही पूरे देश में आरक्षण के विरोध की आग भड़क उठी।
राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह जी वह प्रधानमंत्री थे जिन्होंने सन 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया।जनता दल ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में वादा किया था कि सरकार बनने पर मण्डल कमीशन की सिफारिश को लागू कर अन्य पिछड़े वर्ग को जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण का कोटा दिया जाएगा।प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह इसे लागू करने का पूरा मन बना चुके थे।

*क्या हुआ मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद*

मंडल आयोग की रिपोर्ट 13 अगस्त,1990 को लागू होने के बाद देश भर के सवर्ण छात्र का ही नहीं, बल्कि सरकार के भीतर भी विरोध देखने को मिला। वीपी सिंह सरकार के भीतर मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने को लेकर नेता अलग-अलग मत पहले ही जाहिर कर चुके थे। जब वीपी सिंह ने कैबिनेट की मीटिंग में खड़े होकर अपने मैनिफेस्टो में किये गए वादे के मुताबिक मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की बात कही,तब इसे सुन कई मंत्री चुप्पी साध गए थे।लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान ने इसका खुलकर समर्थन किया।आगरा के जाट नेता और तत्कालीन रेल राज्यमंत्री अजय सिंह ने एक अलहदा सुझाव दिया।उन्होंने कहा कि इसी में थोड़ा-बहुत इधर उधर करके जनरल कैटगिरी (जिनमें जाट भी शामिल थे) के गरीब लोगों के लिए भी कुछ स्पेस बना दिया जाए, तो कोई बवाल नहीं होगा अन्यथा इसका विरोध हो सकता है।किसी ने अजय सिंह की नहीं सुनीं और फैसले पर मुहर लगा दी गई।
इसके दो दिन बाद यानी 9 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने को लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह और उप प्रधानमंत्री देवीलाल में मतभेद पैदा हो गए।मतभेद इतने बढ़े कि उप-प्रधानमंत्री देवीलाल ने इस्तीफ़ा दे दिया। सरकार अपने इरादे पर पूरी तरह अटल रही।वीपी सिंह संकल्पित थे मण्डल कमीशन की सिफारिश को लागू करने के लिए। 10 अगस्त,1990 को आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के खि़लाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।सरकार पर कोई असर नहीं हुआ, 13 अगस्त 1990 को सरकार ने आनन-फानन में मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने पर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह तो वीपी सिंह के साथ खड़े दिखे लेकिन चंद्रशेखर ने इसे लागू करने के तरीके पर सवाल खड़े कर दिए।चन्द्रशेखर सिर्फ समाजवाद का चोला ओढ़े थे,असल चरित्र तो उनका कट्टर ठाकुरवादी व सामंतवादी था।
वीपी सरकार के विरोध में जब ओडिशा में प्रदर्शनकारी पुलिस फायरिंग की जद में आए, तो उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजू पटनायक के विरोधी स्वर सबसे पहले बाहर आए।बीजू पटनायक जनता दल की ही सरकार चला रहे थे और उन्होंने अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के फैसले का विरोध करते हुए उन पर जातीय हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप मढ़ दिया। बीजू पटनायक के अलावा वीपी सिंह के करीबियों में यशवंत सिन्हा और हरमोहन धवन ने भी उनके फैसले की सार्वजनिक तौर पर आलोचना की। वीपी सिंह से खार खाए बैठे चंद्रशेखर ने कहा था कि- सरकार का इसे लागू करने का तरीका गलत है।वीपी सिंह सरकार के मंत्री अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खां भी असंतुष्ट नेताओं की कतार में खड़े नजर आए।

*मण्डल विरोध की आग*
देश भर में आरक्षण के विरोध में आंदोलन तेज हो गया था।इस बीच आरक्षण विरोधी आंदोलन की एक तस्वीर ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के देशबंधु कॉलेज के थर्ड ईयर के छात्र राजीव गोस्वामी ने खुद को आग लगा ली। उसे गंभीर हालात में एम्स में भर्ती कराया गया। वीपी सिंह की सरकार को बाहर से सशर्त समर्थन देने वाली बीजेपी के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी राजीव गोस्वामी से मिलने एम्स अस्पताल पहुंचे। इस दौरान उन्हें अगड़ी जाति के नौजवानों के तीखे विरोध का सामना करना पड़ा।आडवाणी ने वक्त की नजाकत को भांपा और उसके बाद मंडल के विरोध में कमंडल की राजनीति तेज कर दी।उस वक्त छपी इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी ने वीपी सिंह सरकार को फैसले पर पुनर्विचार नहीं करने पर समर्थन वापसी का भी दबाव बनाया।
हालांकि बीजेपी इस मसले पर कोई स्पष्ट स्टैंड नहीं ले पाई।लेफ्ट पार्टियों की स्थिति भी बीजेपी जैसी ही रही।सीपीआई ने आरक्षण का समर्थन किया, लेकिन सीपीएम को इस मसले पर स्टैंड लेते-लेते काफी वक्त लग गया।सरकार पर लगातार दबाव बढ़ने लगा।नवंबर आते-आते बीजेपी ने वीपी सिंह की नेशनल फ्रंट की सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी।वीपी सिंह ने 7 नवंबर, 1990 को पीएम पद से इस्तीफा दे दिया।

*सवर्ण का बदल गया नारा व सुर*
वीपी सिंह जब कांग्रेस सरकार के रक्षामंत्री पद को त्याग कर राष्ट्रीय मोर्चा के गठन किये तो सवर्णों राजपूतों ने नारा लगाया था-“राजा नहीं फ़क़ीर है,देश की तकदीर है।” लेकिन जब वीपी सिंह ने 13 अगस्त,1990 को मण्डल कमीशन की सिफारिश को लागू करने की अधिसूचना जारी कराए,सवर्णों का नारा व सुर बदल गया-“राजा नहीं रंक है,देश का कलंक है,मान सिंह जयचंद की औलाद है।”
हम उस समय स्नातक द्वितीय वर्ष का काशी विद्यापीठ वाराणसी के छात्र था।उस समय देखा कि सवर्ण छात्र व छात्र नेता वीपी सिंह,शरद यादव,लालू प्रसाद यादव, रामबिलास पासवान को सड़कों पर गाली दे रहे थे।सवर्ण छात्रों ने “वीपी सिंह मुर्दाबाद”,”मण्डल कमीशन वापस लो”,रामबिलास, शरद यादव मुर्दाबाद”,”लालू प्रसाद यादव मुर्दाबाद” व इनके नाम की पट्टिका साँड़, भैंस, गधा, सुअर की पीठ पर चिपका कर गालियाँ दे रहे थे।

*मंडल आयोग ने पिछड़ों के हालात देख क्या सिफारिशें की?*
मंडल आयोग ने पाया कि अन्य पिछड़ा वर्ग भले ही आर्थिक तौर पर मज़बूत रहा हो, लेकिन सरकारी नौकरियों में उसकी भागीदारी कम है। 😢इस वर्ग के तहत कुल 3743 जातियां चिन्हित की गईं।जो सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ी थीं।यह भी पाया गया कि केंद्रीय सरकारी नौकरियों में ओबीसी 12.55 फीसदी हैं। केंद्र सरकार की और क्लास 1 (प्रशासनिक) यानी आईएएस-आईपीएस जैसी नौकरियों में इनकी भागीदारी सिर्फ़ 4.83 फीसदी ही है। अब अगला कदम यह जानना था कि इनकी कुल जनसंख्या में कितनी हिस्सेदारी है?
1931 के बाद जातिगत गणना नहीं हुई थी, लिहाज़ा इन आंकड़ों को अनुमान ही माना गया। सटीक नहीं, हालांकि मोटे तौर पर इससे अलग-अलग जातियों की हिस्सेदारी का अंदाज़ा लग जाता है। इस हिसाब से आंकड़े हैं : सवर्ण – 16.1 फीसदी, हिन्दू ओबीसी – 43.7 फीसदी, अनुसूचित जाति – 16.6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति – 8.6 फीसदी औ ग़ैर-हिंदू अल्पसंख्यक – 17.6 फीसदी(8.40 फीसद मुस्लिम पिछड़े)। सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात है कि सिर्फ़ मंडल आयोग ही हमारे पास वह स्रोत है जिसके आधार पर यह तय किया गया कि हिंदू ओबीसी समूची आबादी में 43.7 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं।
मंडल आयोग के चेयरमैन बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने रिपोर्ट में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का सुझाव दिया। इसकी वजह समझाते हुए उन्होंने लिखा-सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की जंग को पिछड़ी जातियों के ज़हन में जीतना ज़रूरी है।भारत में सरकारी नौकरी पाना सम्मान की बात है। ओबीसी वर्ग की नौकरियों में भागीदारी बढ़ने से उन्हें यकीन होगा कि वे सरकार में भागीदार हैं।पिछड़ी जाति का व्यक्ति अगर कलेक्टर या पुलिस अधीक्षक बनता है, तो ज़ाहिर तौर पर उसके परिवार के अलावा किसी और को लाभ नहीं होगा, पर वह जिस समाज से आता है, उन लोगों में गर्व की भावना आएगी, उनका सिर ऊंचा होगा कि उन्हीं में से कोई व्यक्ति ‘सत्ता के गलियारों’ में है।’
मंडल आयोग के अध्यक्ष बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल 51 दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे थे। उन्होंने अपनी रिपोर्ट इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही सौंप दी थी। लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया।

*कितनी सिफारिशें अब तक लागू हुईं?*
मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट
के अध्याय 13 में कुल 40 प्वाइंट में सिफारिशें की हैं।हैरानी की बात है कि इनमें बहुत कम सिफारिशें ही लागू हो सकीं।अगर मोटे तौर पर कहा जाए तो सिर्फ 2 बड़ी सिफारिशों पर ही अमल हो सका।एक को वीपी सिंह जी ने पूरा किया तो दूसरी को अर्जुन सिंह जी ने। रिपोर्ट के पहले प्वाइंट में ही कहा गया है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ापन और गरीबी, जाति आधारित बाधाओं की वजह से है। यह बाधाएं हमारे सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई हैं। इन्हें खत्म करने के लिए ढांचागत बदलाव की जरूरत होगी।देश के शासक वर्ग के लिए ओबीसी की समस्याओं की अनुभूति में बदलाव कम महत्वपूर्ण नहीं होगा।

*एक नजर उन बिंदुओं पर जिनकी सिफारिश मंडल कमीशन ने की थी लेकिन उन पर बहुत कम अमल हुआ*

1.खुली प्रतिस्पर्धा में मेरिट के आधार पर चुने गए ओबीसी अभ्यर्थी को उनके लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे में समायोजित न किया जाए।
2.ओबीसी रिजर्वेशन सभी स्तरों पर प्रमोशन कोटा में भी लागू किया जाए।
3.हर श्रेणी की पोस्ट के लिए रोस्टर व्यवस्था उसी तरह से लागू की जानी चाहिए, जैसा कि एससी और एसटी के अभ्यर्थियों के मामले में है। मतलब ऐसा न हो किसी खास पोस्ट पर रिजर्वेशन पाने वाला पहुंच ही न सके।
4.सरकार से किसी भी तरीके से वित्तीय सहायता पाने वाली प्राइवेट सेक्टर की सभी कंपनियों को आरक्षण लागू करने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए।
5.इन सिफारिशों को असरदार बनाने के लिए पर्याप्त वैधानिक प्रावधान सरकार द्वारा किए जाएं, जिसमें मौजूदा अधिनियमों, कानूनों, प्रक्रिया आदि में संशोधन शामिल है। इस तरह से आरक्षण को सख्ती से लागू करवाया जा सकेगा।
6.अन्य पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा देने के लिए अलग से पैसों का प्रावधान किया जाना चाहिए। जिससे अलग से योजना चलाकर गंभीर और जरूरतमंद स्टूडेंट्स को प्रोत्साहित किया जा सके और उनके लिए उचित माहौल बनाया जा सके।
7. पिछड़े वर्ग के बच्चों की स्कूल छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है। इसे देखते हुए ओबीसी की घनी आबादी वाली जगहों पर प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक व्यापक और समयबद्ध कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए। पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिए ऐसे स्कूल खोले जाएं, जिनमें रहने की व्यवस्था हो। इससे उन्हें गंभीरता से पढ़ने का माहौल मिल सकेगा. इन स्कूलों में रहने खाने जैसी सभी सुविधाएं, मुफ्त मुहैया कराई जानी चाहिए. इससे गरीब और पिछड़े घरों के बच्चे इनकी ओर आकर्षित होगें।
8.ओबीसी विद्यार्थियों के लिए अलग से सरकारी हॉस्टलों की व्यवस्था की जानी चाहिए, जिनमें खाने, रहने की मुफ्त सुविधाएं हों।
9.ओबीसी शिक्षा बहुत ज्यादा व्यावसायिक प्रशिक्षण की ओर झुकी हुई हो। कुल मिलाकर सेवाओं में आरक्षण से शिक्षित ओबीसी का एक बहुत छोटा हिस्सा ही नौकरियों में जा सकता है। शेष को व्यावसायिक कौशल की जरूरत है, जिसका वह फायदा उठा सकें।
10.ओबीसी स्टूडेंट्स के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे सभी वैज्ञानिक, तकनीकी और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशंस में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की जाए।
11.आरक्षण से प्रवेश पाने वाले विद्यार्थियों को तकनीकी और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूशंस में विशेष कोचिंग की सुविधा प्रदान की जाए।
12.गांवों में बर्तन बनाने वालों, तेल निकालने वालों, लोहार, बढ़ई जैसे वर्ग के लोगों को ट्रनिंग दी जाए। उन्हें उचित संस्थागत वित्तीय और तकनीकी सहायता के साथ प्रोफेशनल ट्रेनिंग दिलाई जाए। जिससे वे अपने दम पर छोटे उद्योगों की स्थापना कर सकें।इसी तरह की सहायता उन ओबीसी अभ्यर्थियों को भी मुहैया कराई जानी चाहिए, जिन्होंने कोई स्पेशल स्किल कोर्स किया है।
14.छोटे और मझोले उद्योगों (एमएसएमई) को बढ़ावा देने के लिए बनी विभिन्न फाइनेंशियल और टेक्निकल एजेंसियों का फायदा सिर्फ प्रभावशाली तबके के सदस्य ही उठा पाते हैं।इसे देखते हुए यह बहुत जरूरी है कि पिछड़े वर्ग की अलग से फाइनेंशियल और टेक्निकल एजेंसियों की व्यवस्था की जाए।

15.मंडल कमीशन में छोटे और मझोले उद्योगों से जुड़े पिछड़े लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए अलग से संस्थाएं बनाने को कहा गया है।

16.देश के बिजनेस और एंटरप्रेन्योर में ओबीसी की हिस्सेदारी नगण्य है। फाइनेंशियल और टेक्निकल इंस्टीट्यूशंस का अलग नेटवर्क तैयार किया जाए।जो ओबीसी वर्ग में कारोबारी और औद्योगिक इंटरप्राइजेज को गति देने में सहायक हो।
17.सभी राज्य सरकारों को प्रगतिशील भूमि सुधार कानून लागू करना चाहिए। इससे देश भर के मौजूदा उत्पादन संबंधों में ढांचागत एवं प्रभावी बदलाव लाया जा सकेगा।
18.इस समय अतिरिक्त भूमि का आवंटन एससी और एसटी को किया जाता है। भूमि सीलिंग कानून आदि लागू किए जाने के बाद से मिली अतिरिक्त जमीनों को ओबीसी भूमिहीन श्रमिकों को भी आवंटित की जानी चाहिए।
19.कुछ पेशेगत समुदाय जैसे मछुआरों,बंजारा, बांसफोड़,खाटवार आदि के कुछ वर्ग अभी भी देश के कुछ हिस्सों में अछूत होने के दंश से पीड़ित हैं। उन्हें आयोग ने ओबीसी के रूप में सूचीबद्ध किया है, लेकिन सरकार द्वारा उन्हें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने पर विचार करना चाहिए।समुद्र तटीय लोकसभा व विधानसभा की कुछ सीटें मछुआरा जातियों के लिए आरक्षित करनी चाहिए,ताकि इन्हें प्रतिनिधित्व मिल सके।
21.पिछड़ा वर्ग विकास निगमों की स्थापना की जानी चाहिए।यह केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए, जो पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए विभिन्न सामाजिक-शैक्षणिक और आर्थिक कदम उठा सकें।
22.केंद्र व राज्य स्तर पर पिछड़े वर्ग के लिए एक अलग मंत्रालय/विभाग बनाया जाना चाहिए, जो उनके हितों की रक्षा का काम करे।
पूरी योजना को 20 साल के लिए लागू किया जाना चाहिए और उसके बाद इसकी समीक्षा की जानी चाहिए।
मंडल आयोग की सिफारिशों को देखें तो इसके सिर्फ दो बड़े बिंदुओं पर ही कुछ हद तक काम हुआ है। पहला है केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण और दूसरा केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमिशन में ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण। बाकी सिफारिशें अब भी धूल फांक रही हैं।
मण्डल कमीशन की मंशा व संविधान के अनुच्छेद-15(4),16(4) की व्यवस्था की मजबूती के लिए ओबीसी की जातिगत जनगणना आवश्यक है।यूपीए-2 की सरकार ने सेन्सस-2011 में सोसिओ-इको-कास्ट सेन्सस/सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना(एसईसीसी) कराया था।लेकिन एनडीए सरकार ने एससी, एसटी,धार्मिक अल्पसंख्यक(मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई, जैन,बौद्ध,पारसी,रेसलर आदि),दिव्यांग व ट्रांसजेंडर की जनगणना रिपोर्ट उजागर कर दी,पर ओबीसी का आँकड़ा गुप्त रख लिया गया।2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सेन्सस-2021 में ओबीसी की जनगणना के वादा किये थे।लेकिन वर्तमान गृहमंत्री नित्यानंद राय(यादव) ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा देकर ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने से असमर्थता जता दिया।केन्द्र सरकार ओबीसी उपवर्गीकरण के लिए राष्ट्रीय पिछड़ावर्ग उपवर्गीकरण जांच आयोग का गठन किया है और उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश अन्य पिछड़ावर्ग सामाजिक न्याय समिति-2018 का गठन किये।जिसने ओबीसी को क्रमशः 4 व 3 श्रेणियों में बांटने की सिफारिश किया है।अब सवाल यह है कि जब 1931 के बाद ओबीसी की जातिगत जनगणना ही नहीं कराई गई तो किस आँकड़े के आधार पर ओबीसी का बंटवारा किया जाएगा और यह कितना उचित होगा।अभी उत्तर प्रदेश सरकार 2010 से 2020 के बीच नियुक्त ओबीसी के कार्मिकों की गिनती करा रही है।जो समझ से परे है।जब ओबीसी की जातिवार संख्या ही मालूम नहीं तो कैसे पता चलेगा कि किस जाति का उसकी जाति की संख्या के अनुपात में कितना प्रतिनिधित्व है?कार्मिकों की गिनती के साथ ओबीसी की जातिवार जनसँख्या का आँकड़ा भी जुटाया जाना उचित रहेगा।

*शंकराचार्य का आरक्षण पर ओछा बयान-*
जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने देश से आरक्षण व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करने की वकालत की। कहा कि आरक्षण का लाभ उठाकर डाक्टर बनने वाला सही इलाज नहीं कर सकता। जज सही न्याय नहीं कर सकता। इंजीनियर पुल नहीं बना सकता और न प्रोफेसर ठीक से पढ़ा सकता है।जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने आरक्षण व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने आरक्षित सीटों पर पढ़ने वालों पर निशाना साधा। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ बोलते हुए कहा कि पहले वह केवल दलित समाज की बात करती थी तो जोड़-तोड़ की सरकार बनाती रही। जब मायावती ने सर्व समाज की बात की तो सरकार पूर्ण बहुमत की आई। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘जय भीम’ का नारा देना शुरू किया तो मायावती बौखला गई हैं। मायावती जय भीम कहने की बात कर रही हैं, लेकिन उसके साथ जुड़े ब्राह्मण एवं अन्य समाज के लोग कभी नहीं
बोले।दलितों को तरक्की करनी है तो सर्व समाज के साथ मिलकर चलना होगा,जय भीम नहीं कहेंगे। रामायण पढ़नी होगी, हिन्दू त्यौहार मनाने होंगे।

*प्रतिभा किसी की बपौती नहीं*
प्रतिभा ब्राह्मण या किसी जाति विशेष की बपौती नहीं है।गीता,महाभारत,वेद,पुराण,शास्त्र,उपनिषद,रामायण किसी ब्राह्मण ने नहीं लिखा?कोई भी वैज्ञानिक खोज किसी ब्राह्मण ने नहीं किया,यह तो परजीवी है।शिक्षा किसी की पैतृक संपत्ति नहीं है।योग्यता जाति नहीं देखती क्योंकि योग्यता एक परवाह है।जिस पर अंकुश लगाना असम्भव है।
कुछ वर्षों पूर्व कलकत्ता में दक ब्रिज धराशायी हो गया,जिसमें दबकर सैकड़ों लोग मर गए।इस ब्रिज को बनाने वाले सभी के सभी इंजीनियर ब्राह्मण व सवर्ण ही थे।इसी तरह वाराणसी कैंट स्टेशन के सामने निर्माणाधीन ओवर ब्रिज गिर पड़ा था,जिसके मलवे में दबकर दर्जनों लोग मर गए और सैकड़ों घायल हो गए।इसे बनाने वाले इंजीनियर भी सवर्ण ही थे।ब्राह्मणों में इतनी बड़ी योग्यता थी तो अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने के लिए द्रोणाचार्य ने निषाद पुत्र एकलव्य का छल-कपट कर दाहिने हाथ का अँगूठा क्यों कटवाया?निषाद पालित (अधिरथ व राधा निषाद) कर्ण को सूतपुत्र कहकर शिक्षा देने से मना क्यों किया?

*ओबीसी,एससी के साथ बेईमानी न हो तो सवर्णों से बेहतर है इनकी प्रतिभा*
जब मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई तो सवर्ण कहते थे कि इसे अयोग्य का चयन होगा।आरक्षण भीख है,बैशाखी है।बता दें कि आरक्षण से न तो अयोग्य का चयन होता है और न किसी की हकमारी होती है न किसी की प्रतिभा का हनन होता।आरक्षण प्रतिनिधित्व सुनिश्चितिकरण का संवैधानिक अधिकार है।यदि वंचित वर्ग को अवसर मिले तो ब्राह्मणों व सवर्णों से बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।उत्तर प्रदेश अधीनस्थ कर्मचारी सेवा चयन आयोग,उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग,उच्चतर न्यायिक सेवा आयोग,उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग,माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन आयोग,अशासकीय महाविद्यालय प्राचार्य भर्ती व प्राथमिक शिक्षक भर्ती ,नर्स भर्ती हो,इसके परिणाम को देखा जाय तो ओबीसी,एससी का कट ऑफ को देखा जाय तो सवर्णों से उच्च रही।इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रोफेसर भर्ती को देखा जाय तो ओबीसी,एससी का एकेडमिक रिकॉर्ड देखा जाय तो सवर्णों से उच्च रहा,लेकिन 15 अंक के साक्षात्कार में घालमेल व जातिवाद किया और ओबीसी,एससी के समक्ष एनएफएस लिखकर बाहर कर दिया गया।आगरा विश्वविद्यालय के पीएचडी प्रवेश परीक्षा में ओबीसी,एससी का कटऑफ सामान्य से अधिक रही या बराबर।अगर ओबीसी,एससी के साथ सवर्णीय जातिवादी जालसाजी न की जाय तो ये ओवरलैपिंग कर सकते हैं।ओवरलैपिंग अगर कराई भी जाती है तो ओबीसी,एससी को उनके कोटे के अंदर ही सीमित कर दिया जा रहा है।

*पुजारी व पीठाधीश सिर्फ़ ब्राह्मण ही क्यों?*
तमिलनाडु सरकार ने मंदिरों में पुजारी बनने के लिए ओबीसी को 50 प्रतिशत, एससी को 18 व एसटी को 1 प्रतिशत कोटा के साथ विज्ञापन निकाला।जिसका ब्राह्मण समाज ने विरोध किया।सरकार ने कहा कि पुजारी बनने के प्रतियोगी परीक्षा कराकर योग्यता के आधार बनाये जायेंगे।लेकिन ब्राह्मणों को यह बात रास नहीं आयी।उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट में ओबीसी,एससी के पुजारी बनने पर रोक लगाने के लिए याचिका दाखिल कर दिया,जिस पर कोर्ट ने रोक लगा दिया।अब यह मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया है।

*देश संविधान से चलेगा कि अगम शास्त्र से*
योग्यता के आधार पर पुजारी बनाने के तमिलनाडु सरकार के निर्णय को गलत बताते हुए ब्राह्मण संगठनों ने दलील दिया है कि यह अगम शास्त्र के विरुद्ध है।यह सवाल खड़ा होता है कि देश संविधान से चलेगा या अगमशास्त्र से।

*जाति प्रमुख है या कर्म*
क्या तथाकथित ब्राह्मण के घर पैदा हुआ कुकर्मी,गंवार,नीचकर्मा भी सम्मानित व निषाद, यादव,चमार,पासी….के घर पैदा प्रकाण्ड विद्वान,चरित्रवान,शीलवान नीच ही माना जायेगा,आखिर क्यों?गीता तो इस व्यवस्था का समर्थन नहीं करता।गीतोक्त बचन है-
“जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते।” यानि जन्म से सभी शूद्र होते हैं,संस्कार के आधार पर द्विज की उच्चता को ग्रहण करते हैं।
गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण के हवाले से कहलाया गया है-
“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः।” योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि चारों वर्णों की सृष्टि हमने गुण व कर्म के आधार पर किया है।
एक स्थान पर ऐसा ही इस प्रकार कहा गया है-“ब्रह्म जानेति इति ब्राह्मण: वेद पाठेनि इति विप्र:”,अब बताइये कि वर्तमान में कितने तथाकथित ब्राह्मण ब्रह्म को जानते हैं और कितने विप्र/ब्राह्मण वेद पारंगत हैं?

चौ.लौटनराम निषाद
(लेखक सामाजिक न्याय चिन्तक व सामाजिक राजनीतिक विश्लेषक व समीक्षक हैं।)