कलियुग में श्रीकृष्ण भक्ति ही कल्याण का मार्ग : अर्द्धमौनी

मुरादाबाद। बिहारों का मन्दिर, कंजरी सराय में आयोजित श्रीगीता भागवत सत्संग में कथा व्यास एवं मठ-मन्दिर विभाग प्रमुख श्रद्धेय धीरशान्त दास अर्द्धमौनी ने बताया कि भगवान श्री कृष्ण भक्ति ही कल्याण का एक मात्र उपाय है।

किसी प्रयोजन से किये गए कर्मों में पहले प्रयोजन को समझ लेना चाहिए। पूरी तरह सोच-विचार कर ही कार्य करना चाहिए, बिना विचार किये, शीघ्रतापूर्वक निर्णय करके आरम्भ किये गये कार्य का परिणाम मङ्गलकारी नहीं होता।

यदि मूल आधार नष्ट हो जाए, तो उसके आश्रित रहने वाले सभी लोग स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाए, तो फिर उसकी शाखाएं कैसे रह सकती हैं, अपने मूल को कभी न कटने दें। उनसे ही अपना अस्तित्व यथार्थ है।

लोग कहते हैं कि अच्छा संत , गुरु नहीं मिलता, पर आप जब तक अच्छे नहीं होंगे, तब तक वे नहीं मिलेंगे। आप अच्छे हो जाओ तो बढ़िया से बढ़िया गुरु, संत, ग्रंथ मिल जाएंगे। अच्छी युक्तियां मिल जाएंगी। इसलिए केवल अपनी लगन बढ़ाओ। भोजन बढ़िया मिल जाएगा पर भूख अपनी चाहिए। भूख नहीं हो तो बढ़िया भोजन से भी क्या होगा। आप सच्चे हृदय से लगन लगाओ तो सब चीजें मिलने को तैयार हैं! अच्छे-अच्छे महात्मा आपको ढूंढेंगे।

आम पक कर तैयार हो जाए तो तोता अपने- आप उसके पास आता है। आप तैयार हो जाओ तो अच्छे संत, अच्छे ग्रंथ, अच्छी युक्तियां खुद आपके पास आएंगी।

राम नाम-महिमा केवल रोचक वाक्य नहीं

यह सर्वथा यथार्थ तत्त्व है। बड़े-बड़े ऋषियों और संत-महात्माओंने नाम – महिमाका प्रत्यक्ष अनुभव करके ही उसके गुण गाये हैं । अब भी ऐसे लोग मिल सकते हैं जिन्हें नामकी प्रबल शक्तिका अनेक बार, अनेक तरहसे अनुभव हो चुका है । परन्तु वे लोग उन सब रहस्योंको अश्रद्धालु और नामापमानकारी लोगोंके सामने कहना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी एक नामका अपराध है—जो नामके रसिक हैं, जिन्हें इसमें असली रसास्वाद का कभी अवसर प्राप्त हो गया है वे तो फिर दूसरी ओर भूलकर भी नहीं ताकते । न उन्हें शरीर की कुछ परवा रहती है और न जगत् की । मतवाले शराबी की तरह नाम प्रेम में मस्त हुए वे कभी हँसते हैं, कभी रोते हैं, कभी गाते हैं, कभी नाचते हैं। उनके लिये फिर कोई अपना पराया नहीं रह जाता। ऐसे ही प्रेमियों के सम्बन्ध में महात्मा जी लिखते हैं

वास्तव में ऐसे ही पुरुष नाम के यथार्थ भक्त हैं और इन्हीं लोगों द्वारा किया हुआ नामोच्चारण जगत् को पावन कर देता है, जहाँ तक ऐसी प्रेमकी मस्ती न प्राप्त हो, वहाँ तक प्रेममार्ग में भी शास्त्रों की मर्यादा का पूरा रक्षण करना चाहिये। महर्षि नारद कहते हैं-नहीं तो पतित होने की आशंका है, अतएव आरम्भ में अपने-अपने वर्णाश्रमानुमोदित सन्ध्या वन्दन, पिता-माता आदि की सेवा, परिवार संरक्षण आदि वैदिक और लौकिक कार्यों को करते हुए श्रीभगवन्नाम का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। स्मृति विहित कर्म के त्याग की आवश्यकता नहीं है, यथा समय और यथा स्थान उनका आचरण अवश्य करना चाहिये। रामनाम ऐसा धन नहीं है जो ऐसे-वैसे कामोंमें खर्च किया जाय। जो मनुष्य मामूली-सा काँचका टुकड़ा खरीदने जाकर बदलेमें बहुमूल्य हीरा दे आता है वह कभी बुद्धिमान् नहीं कहलाता। इसी प्रकार जो कार्य लौकिक या स्मृतिविहित कर्मों के आचरण से सिद्ध हो सकता है, उसमें नाम का प्रयोग करना राजाधिराज से झाडू दिलवाने के समान है – सोने को

मिट्टी के भाव बेचने के समान है। अतएव रामनाम-जप में स्मृति विहित कर्मोंके त्याग की कोई आवश्यकता नहीं।
सत्संग में रानी वर्मा, मन्जू पुरी, कमला देवी, देवी सिंह, राकेश अग्रवाल, लाखन सिंह, सुधा शर्मा, सपना चौधरी, विपिन अग्रवाल, लता यादव, पं० प्रेम शर्मा, देवांश अग्रवाल आदि ने सहयोग दिया।