पिछड़ों के अहित के लिए भगवान बुद्ध को भी धोखा
डा. अम्बेडकर ने हिन्दूधर्म त्याग देने का निर्णय 1935 में ही कर लिया था। उन्होंने 14 अक्टूबर,1956 को नागपुर में बौद्ध धम्म दीक्षा समारोह में अपने भाषण में कहा था-
मैंने हिन्दू धर्म को त्याग करने का आन्दोलन 1935 में शुरू किया था और बराबर इस आन्दोलन को चला रहा हूँ। येवला (नासिक जिला) में इस आन्दोलन को चलाने के लिए अप्रैल 1935 में बड़ा जलसा किया था और उसमें एक प्रस्ताव द्वारा हमने निर्णय किया था कि हम इस हिन्दू धर्म को छोड़ेंगे। मैंने उसी समय यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘यद्यपि मैंने हिन्दू धर्म में जन्म अवश्य लिया है, तो भी हिन्दू धर्म में नहीं मरूँगा’। ऐसी प्रतिज्ञा मैंने आज से 21 वर्ष पूर्व की थी और उसे आज पूरा कर दिया।”
(“माया युग”, मासिक पत्रिका पेज 38, अक्टूबार, 2007 प्र. सम्पादक कु० मायावती)
पुनः उसी बात को डा.अम्बेडकर ने दुहराया- अप्रैल 1936 में लाहौर में भाषण देने हेतु “जाति भेद उन्मूलन” (Inhilation of Caste) नाम से लेख लिखा। जिसमें उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ देने की घोषणा की थी। कहा कि हिन्दू श्रोताओं के बीच में मेरा यह अंतिम भाषण है। लेकिन क्या कारण था कि बौद्ध धर्म का गुणगान करने वाले डा.अम्बेडकर बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए लगभग 21 वर्ष तक का इन्तजार किये? स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म की मानवीय विचारधारा के कारण, सभी प्राणियों के प्रति (जिसमें हिन्दू पिछड़ी जातियों (शूद्रों) के लोग भी आ जाते) सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी, सम्यक संकल्प आदि को अपनाना पड़ता,जिससे डा.अम्बेडकर को अछूतों के एजेन्डे को छोड़ देना पड़ता। इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि डा.अम्बेडकर में बौद्ध धर्मानुकूल कोई मानवीय दृष्टिकोण नहीं था। स्वाभाविक रूप (परिस्थिति जन्य साक्ष्य) से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनकी आत्मा (मैं समझता हूँ कि उनमें अभी आत्मा
रही होगी, क्यों कि अभी वे हिन्दू हैं) ने परोक्ष रूप से बुद्ध से कहा होगा कि-“आप का धर्म बहुत श्रेष्ठ है, लेकिन अभी मैं बौद्ध धर्म में नहीं आऊँगा, क्योंकि मुझे अभी बहुत से भेदभाव वाले कार्य (शूद्रों में दो समूह बाँटकर) करने हैं। अस्पृश्यता के आधार पर आरक्षण लेना है, इसी वर्ष नवम्बर, दिसम्बर में प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव होने हैं, चुनाव जातीय आधार पर लड़ना-लड़ाना है तो अभी बौद्ध धर्म में कैसे आ सकता हूँ?” 1936 के प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव तो हो गये ( तब भी बुद्ध की शरण में डा. अम्बेडकर नहीं गये) लेकिन गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 के आधार पर केवल प्रान्तीय चुनाव हुए हैं और केन्द्रीय एसेम्बली का चुनाव द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण बाधित हो गया है- ‘इसलिए अभी तो 1942 में ‘शिड्यूल कास्ट फेडरेशन’ बनाकर केन्द्रीय चुनाव लड़ना-लड़ाना है”।
(डा. अम्बेडकर 1946 में शिड्यूल कास्ट फेडरेशन से मुस्लिम लीग की मदद से चुनाव लड़कर संविधान सभा में पहुँचे। 1952 का प्रथम आम चुनाव शिड्यूल कास्ट फेडरेशन से लड़कर हार गये। 3 अप्रैल 1952 में ही शिड्यूल कास्ट फेडरेशन के कोटे से राज्य सभा में पहुँचे। पुन: दूसरी बार 3 अप्रैल 1956 को शिड्यूल कास्ट फेडरेशन के कोटे से राज्य सभा में पहुँचे।)
संभवतः आत्मा ने आगे भी कहा होगा-“…जब तक कुछ करने की सामर्थ्य है तब तक तो नहीं ही आऊँगा।”
जब शरीर शिथिल होने लगा, तब 14 अक्टूबर, 1956 में डा. अम्बेडकर बौद्ध बन कर, जात-पात से ऊपर उठकर कार्य करने वालों के लिए, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की योजना कर 6 दिसम्बर, 1956 को निर्वाण प्राप्त कर गये। कितना बढ़िया अध्यात्मवाद! कुल 53 दिन का अध्यात्मवाद, मृत्यु की बेला का अध्यात्मवाद! हैं न एक अद्भुत आध्यात्मिक आदमी- अम्बेडकर।डॉ. भीमराव अंबेडकर के कारण पिछड़ी जातियाँ अन्याय की शिकार होती रहीं।उन्होंने साइमन कमीशन के सामने सछूत शूद्र जातियों(हिन्दू पिछड़ी जातियों) को डिप्रेस्ड क्लास नहीं मामने की दलील दिया।
बाबू रामचरनलाल निषाद एमएलसी,एमएलसी,रामप्रसाद अहिर प्लीडर,शिवदयाल चौरसिया, राजाराम कहार आदि सभी अछूत व अछूत शूद्रों को एक समान आरक्षण व प्रतिनिधित्व देने की दलील दिया।अम्बेडकर ने कमीशन के समक्ष कहा कि रामचरनलाल जाति के मल्लाह हैं,ये अस्पृश्य/अछूत नहीं हैं,इनका अपने को डिप्रेस्ड कहना गलत है।अम्बेडकर सछूत शूद्रों/पिछड़ी जातियों के मताधिकार के भी विरोधी थे।वे अस्पृश्यों के लिए कम्युनल अवार्ड की माँग कर रहे थे,अछूतों के दोहरे मताधिकार की बात कर रहे थे,वहीं रामचरनलाल निषाद एड, रामप्रसाद अहिर आदि सभी शूद्रों के वयस्क मताधिकार की लड़ाई लड़ रहे थे।1932 से पूर्व हिन्दू वर्णव्यवस्था के अंतर्गत शूद्र वर्ण को ब्रिटिश सरकार द्वारा डिप्रेस्ड क्लास में रखा गया था।लेकिन अम्बेडकर डिप्रेस्ड क्लास को टचेबल(सछूत) व अनटचेबल(अछूत) विभक्त कर 1932 में साज़िश व अंग्रेज अधिकारियों को गुमराह कर सछूत पिछड़ों को बाहर का रास्ता दिखलाने में सफल हो गए।डॉ. अम्बेडकर किसी भी दृष्टि से बहुजन समर्थक व हिन्दू पिछड़ी जातियों के हितैषी नहीं थे।उन्हीं की लीपापोती के कारण पिछड़ी जातियाँ 57 साल तक सामाजिक न्याय से वंचित रहीं।अम्बेडकर की नियत बहुजन कल्याण की रही होती तो गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 व 1937 में हीं पिछड़ी जातियों को शिक्षा,सेवायोजन व राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अधिकार मिल गया होता।अम्बेडकर को बढ़ाने,पढ़ाने में पिछड़ी ही जाति के ज्योतिराव फूले(माली),छत्रपति शाहू जी महाराज(कुणबी),सयाजी गायकवाड़(यादव),डॉ. जोगेन्द्र नाथ मण्डल(नमोशूद्र/कैवर्त/निषाद) का ही योगदान था।पिछड़ों ने ही डॉ.अम्बेडकरको आगे बढ़ाया, लेकिन अम्बेडकर पिछड़ों को पीछे करने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखा।